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समय
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सार.. अ०
ताते चिद्भावन विषे, समरथ चेतन राव। राग विरोध मिथ्यातमें, सम्यक्में शिवभाव।। ६५ ॥ है अर्थ–सुगुरु कहे हे शिष्य ? इस प्रकार जो कोई उलटें पक्षकं धारे अर श्रद्धा करे है । सो * मनुष्य रागद्वेषसे कबहूं छूटे नही है ॥ ६३ ॥ जगमें जीव सदा पुद्गलके संग रहे है । सो स्वयंसिद्ध हूँ के परिणाम ग्रहण करनेकू अवसर नहि पावे है ॥ ६४ ॥ जीव जो है सो ज्ञानभावमें समर्थ है। पण है ॐ मिथ्यात्वमें प्रवर्ते तब रागद्वेषके भाव उपजे अर सम्यक्तमें प्रवर्ते तब मोक्षके भाव उपजे है ॥ ६५ ॥
॥ अव ज्ञानभावकी महिमा कहे है ॥ दोहा॥ज्यों दीपक रजनी समें, चहु दिशि करे उदोत । प्रगटें घटपट रूपमें, घटपट रूप न होत ॥६६॥ ॐ सों सुज्ञान जाने सकल, ज्ञेय वस्तुको मर्म । ज्ञेयाकृति परिणमे पैं, तजे न आतम धर्म ॥१७॥ र ज्ञानधर्म अविचल सदा, गहे विकार न कोइ।राग विरोध विमोह मय, कबहू भूलि न होइ ॥६॥ हैं ऐसी महिमा ज्ञानकी, निश्चय है घटमांहि । मूरख मिथ्यादृष्टीसों, सहज विलोके नांहि ॥१९॥
अर्थ-जैसे दीपक रात्री समयमें, सब ठोर प्रकाश करे है। तिस प्रकाशमें घटपटादि समस्त । पदार्थ दीसे है, परंतु दीपकका प्रकाश घटपटादिकके समान होय नही ॥ ६६ ॥ तैसे सुज्ञान है सो है
ज्ञेय ( वस्तु) को मर्म जाने है । अर तिस वस्तुके आकाररूप परिणमे है, परंतु आपना जानपना । ॐ गुण नहि तजे है, ॥ ६७ ॥ ज्ञानका जाननेका गुण है ते सदाकाल अविचल रहे अर कोऊ प्रकारका 5 विकार ( दोष) नहि धारण करे है । तथा राग द्वेष अर मोहमय कबहूं नाहि होय है ॥६८॥ ऐसे ज्ञानकी र महिमा निश्चयते आत्मामें है । परंतु अज्ञानी मिथ्यादृष्टी आत्मस्वरूपकू देखे हू नही है ॥ ६९॥ १
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