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समय॥९९॥
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अर्थ — जबतक यह जीव अज्ञान मार्ग में दोडे है, तबतक राग अर द्वेषके उदय रूप दीखे है । अर जब जीवकूं ज्ञान जाग्रत होय है, तब राग द्वेषके कर्म जनित दशाकूं पुद्गलरूप समझे । अर आत्माकं जुदा जाणे है जहां ज्ञानका अनुभव है, तहां मोह मिथ्यात्वका प्रवेश नहि होय है । मोह गयेते केवलज्ञान उपजे अर जीव सिद्ध होय है सो फेर जगतमें नहि आवे 11 46 11 | अब आत्मासे परमात्मा कैसा होय ताका क्रम कहे है ॥ छप्पै छंद ॥जीव कर्म संयोग, सहज मिथ्यात्व धर । राग द्वेष परणति प्रभाव, जाने न आप पर । तम मिथ्यात्व मिट गये, भये समकित उद्योत शशि । राग द्वेष कछु वस्तु नांहि छिन मांहि गये नशि । अनुभव अभ्यास सुख राशि रमि, भयो निपुण तारण तरण | पूरण प्रकाश निहचल निरखि, बनारसी बंदत चरण ॥ ५९ ॥ अर्थ —अनादि कालसे जीवकूं कर्मका संयोग है, ताते जीव सहजही मिथ्यात्व ( अज्ञान ) स्वरूपकूं धरे है । तथा राग अर द्वेषमें परिणमे ताते, आत्माका तथा पुद्गलका भेद नहि जाने । अर मिथ्यात्व अंधकार मिटे है, तब सम्यक्त ( भेदज्ञान ) रूप चंद्रका प्रकाश होय है । तिस प्रकाशते राग द्वेष है सो कछु आत्मा नही ऐसे खबर पडे है, तथा क्षणमें राग द्वेषका नाश होय है । फेर आत्मानुभवके अभ्यासरूप सुखमें रमे है, तब आत्मा है सो पूर्ण परमात्मा तारण तरण होय है । ऐसे पूर्ण परमात्माका निश्चय स्वरूप ज्ञानते अवलोकन करि, बनारसीदास तिनके चरणकों वंदना करे है ॥५९॥ ॥ अव शिष्य राग द्वेषके कारण पूछें अर गुरु उत्तर कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ कोउ शिष्य कहे खामी राग द्वेष परिणाम, ताको मूल प्रेरक कहहुं तुम कौन है ॥ पुद्गल करम जोग किंधो इंद्रिनीके भोग, कींधो धन कींधो परिजन कींधो भोंन है ॥
सार
अ० १०
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