________________
अज्ञानी है ते देहको जीव माने है । अर सदा बाह्य क्रिया कांडमें मग्न रहे है ॥ १२० ॥ अर बाह्य क्रियाते कर्मकी निर्जरा समझे है । तैसे अनुक्रमे मोक्ष होना मानि मनमें हर्ष धरे है ॥ १२१ ॥ कोई सम्यक्ती आत्मानुभवकी कथा कहे तो । ' सुनी तिनसूं कहे ये मोक्षमार्ग की कथा नही है ॥ १२२ ॥ ॥ अव अज्ञानीका अर ज्ञानीका लक्षण कहे है ॥ कवित्त ॥जिन्ह देह बुद्धि घट अंतर, मुनि मुद्रा घरि क्रिया प्रमाणहि || ते हि अंध बंध करता. परम तत्वको भेद न जानहि ॥ जिन्ह हिये सुमतिकी कणिका, वाहिज क्रिया भेप परमाणहि || ते समकिती मोक्ष मारग मुख, करि प्रस्थान भवस्थिति भानहि ॥ १२३ ॥
अर्थ — जिन्हके हृदयमें देहविषे आत्मपणाकी बुद्धि है, अर मुनि मुद्रा धारण करि क्रियातेही
-
1
मोक्ष होना माने है । ते हृदयके अंध अर कर्मबंध के कर्त्ता है, ऐसे मूढ है ते आत्म तत्वका भेद नहि | जाने है | अर जिन्हके हृदय में आत्मानुभवका अंश जाग्रत भया है, ते बाह्य क्रियाकूं स्वांग समान | समझे है । ते सम्यक्ती मोक्ष मार्गके सन्मुख प्रयाण करि, निश्चयते भव स्थितीका भस्म करे है ॥ १२३ ॥ ॥ अव आचार्य मोक्षमार्गका सारांश कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ -
आचारज कहे जिन वचनको विसतार, अगम अपार है कहेंगे हम कितनो ॥ बहुत बोलवेसों न मकसूद चुप्प भलो, वोलीयेसों वचन प्रयोजन है जितनो ॥ नानारूप जल्पनसो नाना विकलप ऊंठे, ताते जेतो कारिज कथन भलो तितनो ॥ शुद्ध परमातमाको अनुभौ अभ्यास कीजे, येही मोक्ष पंथ परमारथ है इतनो ॥ १२४ ॥