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समय॥५७॥
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॥ अव ज्ञानी है सो कर्मका कर्ता नही सो कहे है ॥ सवैया २३ सा ॥
( सार जे निज पूरव कर्म उदै सुख, भुंजत भोग उदास रहेंगे।
अ०७ __ 'जे दुखमें न विलाप करे, निर वैर हिये तन ताप सहेंगे ॥
है जिनके दृढ आतम ज्ञान, क्रिया करिके फलकोन चहेंगे॥ . .
ते सु विचक्षण ज्ञायक है, तिनको करता हमतो न कहेंगे ॥४४॥ __अर्थ-अपने पूर्व संचित कीये कर्मके उदयमाफिक सुख दुःख आवे है, तब जे जीव तिस सुखकू | भोगे है पण प्रीति नहि करे है उदास रहे है । अर तिस दुःख• सहे है पण विलाप नहि करे है , तथा अन्य जीवने अपने• कष्ट दीया तो सहन करे है तिस ऊपर वैर नहि धरे है । अर जिन्हळू है भेदज्ञान अत्यंत दृढ हुवा है, तथा शुभ क्रिया करे तिस क्रियाका फल स्वर्गवा राज्य वैभवादिक नहि चाहे है । तेही मनुष्य ज्ञानी है, सो संसारभोग भोगे है तोहूं तिसकू कर्मका कर्ता हमतो नहिं कहेंगे ॥४॥
॥ अव ज्ञानीका आचार विचार कहे है ॥ सवैया ३१ साजिन्हके सुदृष्टीमें अनिष्ट इष्ट दोउ सम, जिन्हको आचार सु विचार शुभ ध्यान है।
खारथको त्यागि जे लगे है परमारथको, जिन्हके वनीजमें न नफा है न ज्यान है॥ है जिन्हके समझमें शरीर ऐसो मानीयत, धानकोसो छीलक कृपाणकोसो म्यान है। पारखी पदारथके साखी भ्रम भारथके, तेई साधु तिनहीको यथारथ ज्ञान है ॥४५॥
ते ॥१७॥ अर्थ-जिन्हके ज्ञानदृष्टि में इष्ट वस्तु अर अनिष्ट वस्तु दोनू समान दीखे है, जिन्हको आचार ६ तथा विचार एक शुभ ध्यान प्राप्तीमें रहे है । जे विषयसुखको छोडिके आत्मध्यानरूप परमार्थ मार्गकू
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