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. .॥ अव शिष्य कर्मवंधका कारण पूछे है ॥ कवित्त ॥
'जे जे मोह कर्मकी परणति, बंध निदान कही तुम सव्व ॥ संतत भिन्न शुद्ध चेतनसों, तिन्हको मूल हेतू कह अव्व॥ कै यह सहज जीवको कौतुक, कै निमित्त है पुद्गल दव ॥
सीस नवाइ शिष्य इम पूछत, कहे सुगुरु उत्तर सुनि भव ॥ ३२॥ अर्थ-मोहकर्मकी जे-जे राग द्वेषादिक परणति है ते ते सर्व कर्मबंधका कारण है ऐसे आपने कहा। परंतु मोह परणति तो शुद्ध आत्मासे सदा भिन्न है, सो बंधका कारण कैसा होय ? ये कर्मबंध है सो स्वाभाविक जीवके कौतुकते होय है कि, पुद्गल द्रव्यके निमित्तते होय है। इनका मूल हेतु अब | कहो ऐसे मस्तक नवाइके शिष्य पूछे है ॥ ३२ ॥ ..
॥ अव कर्मबंधका कारण सद्गुरु कहे है सो हे भव्य तुम सुनो ॥ सवैया ३१ सा ॥जैसे नाना वरण पुरी बनाइ दीजे हेठ, उजल विमल मणि सूरज करांति है॥ उजलता भासे जब वस्तुको विचार कीजे, पूरिकी झलकसों वरण भांति भांति है। तैसे जीव दरवको पुद्गल निमित्तरूप, ताकि ममतासों मोह मदिराकि मांति है।
भेदज्ञानदृष्टिसों स्वभाव साधि लीजे तहां साचि शुद्ध चेतना अवाचि सुखशांति है॥३३॥ अर्थ-जैसे काश्मिरी सफेत पाषाण ( स्फटिक) के मणीमें नाना प्रकार रंगका पुड दीजे, तब तो मणी सूर्यकांतिके मणि समान नानारंगरूप दीखे है । जब मूल वस्तूका विचार कीजे तो मणि । || उज्जल भासे है, परंतु पुडके निमित्तसे तहेवार देखाय है। तैसे जीवद्रव्यकू अशुद्ध दशाका निमित्त
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