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द्रव्य भाव गुण निर्मल धारा । बोध विधान विविध विस्तारा ॥४८॥ जिन्हके सहज अवस्था ऐसी । तिन्हके हिरदे दुविधा कैसी॥
जे मुनि क्षपक श्रेणि चढि धाये । ते केवलि भगवान कहाये ॥ ४९ ॥ इह विधि जे पूरण भये, अष्टकर्म वनदाहि । तिन्हकी महिमा जे लखे, नमे बनारसि ताहि ॥५०॥|| | अर्थ जहां पूर्व कालके कर्म बंधका उदय व्यापे नही तथा पुन्य अर पापका भेद नही || ||अर जहां साधूके २८ द्रव्य गुण अर भाव गुणकी निर्मल धारा वहे है तथा नाना प्रकारे ज्ञानका ||3|| विस्तार है ॥४८॥ जिसकी स्वयंसिद्ध ऐसी अवस्था हो रही है तिसके हृदयमें कौनसेही प्रकारकी दुविधा (संशय ) नहि रहे है । अर जे मुनि क्षपक श्रेणी चढे उई गमन करे है ते मुनि केवली भगवान है ॥ ४९ ॥ इसप्रकार जे मुनि परिपूर्णताळू प्राप्त होय अष्ट कर्मरूप वनकू दग्ध करै है । तिनकी महिमा जे सत्पुरुष जाने है तिनकू बनारसीदास नमस्कार करे है ॥ ५० ॥
॥ अव मोक्ष होनेका क्रम कहे है ॥ छप्पै छंद ।।भयो शुद्ध अंकुर, गयो मिथ्यात्व मूल नसि । क्रम क्रम होत उद्योत, सहज जिम शुक्ल पक्षससि । केवल रूप प्रकाश, भासि सुख रासि धरम ध्रुव । करि पूरण थिति आउ, त्यागि गत भाव परम हुव । इह विधि अनन्य प्रभुता धरत, प्रगटि बुंद सागर भयो । अविचल अखंड अनभय अखय, जीवद्रव्य जगमांहि जयो॥ ५१॥
अर्थ-प्रथम जब सत्यार्थ देव शास्त्र अर गुरूके गुणनकी श्रद्धारूप शुद्ध सम्यक्तका अंकूर उपजे है, तब मिथ्यात्व मूलते विनसी जाय है। फेर शुक्ल पक्षके चंद्र समान क्रमे क्रमे आत्मा शुद्ध होय ।
ARREARSATARA -
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