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मन है महा भ्रमिष्ट है, ते जीव भाव कर्म (राग द्वेष ) का कर्त्ता होय है ॥ १४ ॥ जे अज्ञान || अंधकारसे जीव अर अजीका भेद नहि देखे है । ते जीव सदा भावित कर्मका कर्त्ता होय है ॥१५॥ जे अशुद्ध ( अज्ञान) परिणामते समस्त कार्यमें अहंपणा माने है । ते जीव अशुद्ध परिणामका कर्ता होय है ॥ १६॥
॥ अव शिष्य गुरुसे प्रश्न पूछे है ॥ दोहा ॥| शिष्य पूछे प्रभु तुम कह्यो, दुविध कर्मका रूप । द्रव्यकर्म पुद्गलमई, भावकर्म चिद्रूप ॥ १७॥ all कर्ता द्रव्यजु कर्मको, जीव नहोइ त्रिकालाअव यह भावित कर्म तुम, कहो कोनकी चाल ॥१॥ | कर्ता याको कोन है, कोन करे फल भोग । के पुद्गल के आतमा, के दुहको संयोग ॥१९॥
अर्थ-शिष्य गुरूसे पूछे हे प्रभो, आपने कर्मका स्वरूप दोय प्रकारका कह्यो । एक द्रव्यकर्म ( ज्ञानावरणादिक) ते पुद्गलमय कह्या, अर भावकर्म ( राग द्वेषादिक ) ते चेतनाका विकाररूप कह्या । ॥ १७ ॥ ताते द्रव्यकर्मका कर्त्ता तो कदापि जीव नही होय है यह मुझे समझा । अब भावित कर्म । कैसे होय है सो तुम कहो ॥ १८॥ भावित कर्मका कर्ता कोन है, अर इस कर्मका फल भोक्ता 8 कोन है। पुद्गल कर्ता भोक्ता है की आतमा कर्ता भोक्ता है की दुहूंका संयोग कर्ता भोक्ता है सोही सबका निर्णय कहो ॥ १९॥
॥ अव शिष्यके प्रश्नका गुरु उत्तर कहे है ॥ दोहा॥क्रिया एक कर्ता जुगल, योन जिनागम माहि। अथवा करणी औरकी, और करे यों नाहि॥२०॥ करे और फल भोगवे, और बने नहि एम । जो करता सो भोगता, यहै यथावत जेम ॥२१॥
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