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समय
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1 अर्थ - जेः सदा देहके महिमाकी कथा कहे है, अर आत्माकी शुद्धता. नहिं जाने ' है ' । तथा 'आत्मविचारसेंः परान्मुख रहे है, ते दुर्बुद्धीं दुराराध्य ( बहुत कष्टसे समझाये तो नहि' समझे ) है ||३५|| मिथ्यात्वी अज्ञानी है तिसकूं दुर्बुद्धी कहिये, अर खोटी क्रिया करे तिसकूं दुर्गति कहिये । दुर्बुद्धी है ते एकांत पक्ष ग्रहण करे है, ताते तिसकूं तीन कालमें मुक्ति नहि होय है ॥ ३६ ॥ ॥ अव दुर्बुद्धी भ्रममें कैसे भूले है सो तीन दृष्टांतते कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ -
कायासे विचारें प्रीति मायाही में हारी जीति, लीये हठ रीति जैसे हारीलकी लकरी ॥ ॥ चूंगुलके जोर जैसे गोह गहि रहे भूमि, त्योंहि पाय गाडे पैं न छोडे टेंक · पकरी ॥ मोहकी मरोरसों भरमकों न ठोर पावे, घावे चहु वोर ज्यों वढावे जाल मकरी ॥ ऐसे दुरबुद्धि भूलि झूठ के झरोखे झूलि, फूलि फीरे ममता जंजरनीसों जकरी ॥ ३७ ॥ .
अर्थ- दुर्बुद्धि है सो सदा देहके ममत्वमें तथा कपटके हारी जीतीमें रहे है, अर हठकूं ऐसे घरे है जैसे चील पक्षी पगमें लकडीकूं. पकडे अर आकाशमें उडे तोभी छोडे नही । अथवा जैसे चोर गोह जनावर के कंबरकूं रसी बांधिके मेहल ऊपर फेके तहां गोह भूमीकूं पकडे है, तैसे दुर्जनहूं जो खोटी क्रिया: पकडे हैं सो जादा करे पर छोडे नहीं है । अर मोह मदिराके भ्रमसे कहां ठिकाणा नहि पावे, ऐसे चहुव़ोर दौडे है, जैसे मकडी जाल बढावती चहुओर दौडे है । ऐसे दुर्बुद्धी है सो भ्रमसे भूलि झुठके मार्ग में झुल रहे है, अर डोले फिरे है. पण ममतारूप बेडीते वंध्या है ॥ ३७ ॥ ॥ अब दुर्बुद्धीकी रीत कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ बात सुनि चौकि, ऊठे वातहिसों भौंकि ऊठे, वातसों नरम होइ वातहिसों अकरी ॥ -
सारअ० १
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