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॥ अथ श्रीसमयसार नाटकको दशमो सर्वविशुद्धिद्वार प्रारंभः ॥१०॥
इति श्री नाटकग्रंथमें, कह्यो मोक्ष अधिकारं । अव वरनों संक्षेपसों, सर्व विशुद्धीद्वार ॥ १ ॥ अर्थ — ऐसे नाटक ग्रंथमें मोक्ष अधिकार कह्या । अब सर्व विशुद्धिद्वार कहे है ॥ १ ॥
॥ अव प्रथम शुद्ध ज्ञानपुंज आत्माकी स्तुति करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ दोहा ॥कर्मनिकों करता है भोगनिको भोगता है, जाके प्रभुतामें ऐसो कथन अहित है ॥ जामें एक इंद्रियादि पंचधा कथन नांहिं, सदा निरदोष बंध मोक्षसों रहित है ॥ ज्ञानको समूह ज्ञानगम्य है स्वभाव जाको, लोक व्यापि लोकातीत लोक में महित है ॥ शुद्ध वंश शुद्ध चेतना रस अंश भन्यो, ऐसो हंस परम पुनीतता सहित है ॥ १ ॥ जो निश्चै निर्मल सदा, आदि मध्य अरु अंत । सो चिद्रूप वनारसी, जगत माहिं जैवंत ॥२॥ अर्थ — आत्मा कर्मका कर्त्ता है तथा सुख अर दुःखका भोक्ता है ऐसे लोक व्यवहार में कहे है, पण ये कहना शुद्ध आत्मस्वरूपके प्रभुतामें अहितकारी है । तथा शुद्ध आत्म स्वरूपमें एक इंद्रियादिक पंच इंद्रिय के भेद नही है, आत्मातो सदा निर्दोष है तिसके निश्चय स्वभावमें बंध अर मोक्ष | नही है । आत्मा है सो ज्ञानसमूहका पुंज है अर जानते उसका स्वरूप जान्या जाय है, आत्मा जगमें सर्व स्थानकी व्याप्त है पण आत्माका स्थान जगते भिन्न है अर जगमें आत्मा एक महिमावंत पूजनीक वस्तु है । जिसका कदापि नाश नहि होय है ताते शुद्ध वंश है अर शुद्ध चेतना | ( ज्ञान अर दर्शन ) के रसते भरपूर भया है, ऐसे शुद्धता सहित है सो परमहंस आत्मा ) है ॥ १ ॥