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जे सदैव आपकों विचारे सरवागं शुद्ध, जिन्हके विकलता न व्यापे कह मनमें ॥
तेई मोक्ष मारगके साधक कहावे जीव, भावे रहो मंदिरमें भावे रहो वनमें ॥१५॥ अर्थ-जिसके हृदयमें सुमति जागी है अर भोगसूं विरागी हुवा है, अर देहादिक पर संगके त्यागी त्रैलोक्यमें जे पुरुष है । अर जिसकी रहनी रागद्वेषादिकके भावसे रहित है, सो कबहू घरमें अर धनमें मग्न नहि रहे । अर जो निश्चयते सदा अपने आत्माकू सर्वस्वी शुद्ध माने है, ताते तिनके | मनमें कोई प्रकारे कबहू विकलता ( भ्रम ) नहि व्यापे है। ऐसे जे जीव है तेही मोक्षमार्गके साधक कहावे है, पीछे ते चाहिये तो घरमें रहो अथवा चाहिये तो वनमें रहो तिनकी अवस्था सब ठेकाणे ) एक है ताते मोक्षमार्ग सधे है ॥ १५॥
॥ अव मोक्षमार्गके साधकका विचार कहे है ॥ सवैया २३ सा ॥चेतन मंडित अंग अखंडित, शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो॥ राग विरोध विमोह दशा, समझे भ्रम नाटक पुद्गल केरो॥
भोग संयोग वियोग व्यथा, अवलोकि कहे यह कर्मजुघेरो॥ ' है जिन्हकों अनुभौ इह भांति, सदा तिनकों परमारथ नेरो॥ १६ ॥ अर्थ जो आपने आत्मामें दृष्टि देयके विचारे की-मेरा अंग है सो चेतनायुक्त है अखंडित है, अर शुद्ध पवित्र पदार्थ है । अर जो राग द्वेष तथा मोहरूप अवस्था संसारमें दीखे है, ते सब पुद्गल है कर्मकृत भ्रमरूप नाटक है । अर विषयभोगके संयोग तथा वियोगकी व्यथा है सो पूर्व कर्मका
उदय है मेरेते बाह्य है । जिसीक्यूँ सदाकाल ऐसा परिचय रहे है, तिसळू परमार्थरूप मोक्ष नजिक है ॥१६॥
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