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अर्थ-जैसे सोनेक्रू सोनार घडावे है, तब तिस घाटके संयोगसे सबलोक तिसकू भूषण कहते है || तथापि तिसका सुवर्णपणा नहि जायं है, वह भूषण अटवावेतो फेर सुवर्णही होय है । तैसे जीव है । बासो कर्मके संयोगते चतुर्गतीमें अनेकरूप धारण करै है, पण यह जीव अन्यरूप नहि बने है । चेतनका || अभाव कोई कालमें नहि होय है, ताते सब अवस्थामें जीवकुं ब्रह्म कहते है ॥ ११ ॥
॥ अव अनुभव है सो सुबुद्धि सखीकू ब्रह्मका स्वरूप कहे है ॥ सवैया २३ सा ||
देख सखी यह ब्रह्म विराजत, याकि दशा सव याहिको सोहै ॥ एकमें एक अनेक अनेकमें, बंद लिये दुविधा महि दो है ॥ आप सभारि लखे अपनो पद, आप विसारिके आपहि मोहे ॥
व्यापकरूप यहै घट अंतर, ज्ञानमें कोन अज्ञानमें को है ॥ १२ ॥ - अर्थ-अनुभव है सो सुबुद्धि सखीकू कहे है की हे सखी देख ? यह अपना ईश्वर कैसा विराजे है, इसीका स्वरूप इसीवूही शोभे है । आत्म सत्तामें देखिये तो एकरूप है पुद्गलमें देखिये । तो अनेक रूप है, ज्ञानमें देखिये तो ज्ञानरूप है अर अज्ञानमें देखिये तो अज्ञानरूप है ऐसे दोय रूप आपही है। कबहू तो आपना स्वरूप आप सचेत होयके देखे है, अर कबहूतो आपना स्वरूप आप अचेत होके भूले है अर मोहमें पडे है। हे सखी ? ऐसाही ईश्वर घटके अंतर व्यापकरूप है ताते अपने | समस्त अवस्थामें व्यापि रहे है, ज्ञानमें तथा अज्ञानमें एक आत्माराम है ॥ १२ ॥
॥ अव आत्मस्वरूपका अनुभव कब होय है सो दृष्टांतते कहे है ॥ सवैया २३ सा ॥
ज्यों नट एक धरे बहु भेष, कला प्रगटे जव कौतुक देखे ॥