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समय॥७॥
BRECORAKASH
AKALIGANGANAGAR
. .. ॥ अव आत्मानुभव करनेके विधिका क्रम कहे है ॥ सवैया ३१ सा॥- . सारप्रथम सुदृष्टिसों शरीग्रूप कीजे भिन्न, तामें और सूक्षम शरीर भिन्न मानीये ॥
अ०८ अष्ट कर्म भावकी उपाधि सोई कीजेभिन्न, ताहूमें सुबुद्धिको विलास भिन्न जानिये ॥ तामें प्रमु चेतन विराजत अखंडरूप, वहे श्रुत ज्ञानके प्रमाण ठीक आनिये ॥ वाहिको विचार करिवाहिमें मगन हूजे, वाको पद साधिवेकों ऐसी विधि ठानिये ॥५४॥
अर्थ—प्रथम भेदज्ञानते शरीरकू भिन्न मानना, फेर शरीरमें जो सूक्ष्म तैजस शरीर है अर सूक्ष्म । हूँ कार्माण शरीर है तिसकू भिन्न मानना । फेर अष्ट कर्मके उपाधि ( राग अर द्वेष ) कू भिन्न मानना, हैं फेर कर्मते सुबुद्धीके विलास (भेद ज्ञान) कू भिन्न मानना । तिस ज्ञानके विलासमें आत्मा अखंड वसे है
है, ऐसे श्रुत ज्ञानके प्रमाण अर नय निक्षेपते हृदयमें स्थापन करना । अरे मन ? तूं इस माफिक ॐ आत्माका विचार कर अर इस आत्मामेही मग्न हो, परमात्मपद ( मोक्षपद ) साधवेकू येही आत्मा5 नुभवकी विधि युक्त है सो निरंतर करना ॥ ५४ ॥
॥ अव आत्मानुभवते कर्मका बंधनहि होय हे सो कहे है ॥ चौपई ॥ सवैया ३१ सा ॥
इहि विधि वस्तु व्यवस्था जाने । रागादिक निजरूप न माने ॥ तातें ज्ञानवंत जग माही । करम बंधको करता नाही ॥ ५५ ॥
में ॥७६॥ ___ अर्थ-ऐसे आत्मस्वरूप जाने है अर रागद्वेषादिककू पर माने है । तातै भेदज्ञानी है सो जगतमें 6 कर्मबंध• कर्ता नही है ॥ ५५ ॥