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॥ अव मुक्तिके साधनार्थ चार पुरुषार्थ कहे है ॥ दोहा ॥धर्म अर्थ अरु काम शिव,पुरुषारथ चतुरंग।कुधी कल्पनागहिरहे, सुधी गहे सरवंग ॥१२॥
अर्थ-धर्म धन काम अर मोक्ष ये पुरुषार्थके च्यार अंग है । पण कुबुद्धीवाला है सो अपने मनमाने तैसा अंग ग्रहण करे है अर सुबुद्धीवाला है सो नयते सर्वागळू ग्रहण करे है ॥ १२ ॥
॥ अव चार पुरुषार्थ उपर ज्ञानीका अर अज्ञानीका विचार कहे है ॥ सवैया ३१ सा॥-. कुलको विचार ताहि मूरख धरम कहे, पंडित धरम कहे वस्तुके स्वभावकों ॥ खेहको खजानो ताहि अज्ञानी अरथ कहे, ज्ञानी कहे अरथ दरख दरसावकों ॥ दंपत्तिको भोग ताहि दुरबुद्धि काम कहे, सुधि काम कहे अभिलाष चित्त चावकों ॥ इंद्रलोक थानकों अजान लोक कहे मोक्ष, सुधि मोक्ष कहे एक बंधके अभावकों ॥१३॥
अर्थ-अज्ञानी है सो अपने कुलाचार ( स्नान सोच चौकादिक) कू धर्म कहे है, अर ज्ञानी है सो वस्तुके स्वभावकू धर्म कहे है। अज्ञानी है सो पृथ्वीके खजाने (सोना रूपा वगैरे) कू द्रव्य कहे । ६ है, अर ज्ञानी है सो तत्व अवलोकनकू द्रव्य कहे है। अज्ञानी है सो स्त्री पुरुषके संभोगळू काम कहे है हैं है, अर ज्ञानी है सो चित्तके अभिलाषषं काम कहे है । अज्ञानी है सो इंद्रलोक (स्वर्ग)कू मोक्ष है कहे है, अर ज्ञानी है सो कर्मबंधके क्षयकू मोक्ष कहे है ॥ १३ ॥
॥ अब आत्मरूप साधनके चार पुरुषार्थ कहे है ॥ सवैया ३१ सा - धरमको साधन जो वस्तुको स्वभाव साधे, अरथको साधन विलक्ष द्रव्य षटमें ॥ यहै काम साधन जो संग्रहे निराशपद, सहज खरूप मोक्ष शुद्धता प्रगटमें ॥
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