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॥ अव नेत्रका दृष्टांत देके ज्ञानकी अर वैराग्यकी युगपत् उत्पत्ती दिखावे है ॥ चौपई ॥ दोहा ॥
ज्ञानकला जिसके घटजागी। ते जगमांहि सहज वैरागी ॥
ज्ञानी मगन विषै सुखमाही । यह विपरीत संभवे नाही ॥ ४०॥ all ज्ञानशक्ति वैराग्य बल, शिव साधे समकाल। ज्योंलोचनन्यारे रहे, निरखे दोऊ ताल ॥ ४१॥ PI अर्थ-जिसके हृदयमें सम्यग्ज्ञानके कलाका उद्योत भया है, ते तो जगतसे सहज वैरागी होय । है । अर ज्ञानी होके विषयसुखमें मग्न रहे है, यह विपरीत बात संभवे नही ॥ ४० ॥ ज्ञान अर l वैराग्य ए दोनूवस्तू एक कालमें उपजे है, अर इनके बलते मोक्ष साधे है । जैसे दोनूं नेत्र न्यारे न्यारे । रहे है, तोहू पदार्थका देखना दोनू नेत्रते एक कालमेंही होय है ॥ ४१ ॥ ki ॥ अव कीटकका दृष्टांत देके अज्ञानीके तथा ज्ञानीके कर्मबंधका विचार कहे है ॥ चौपई ॥ दोहा ॥
मूढ कर्मको कर्त्ता होवे । फल अभिलाष धरे फल जोवे ॥
ज्ञानी क्रिया करे फल सूनी । लगे न लेप निर्जरा दूनी ॥ ४२॥ al बंधे कर्मसों मूढज्यों, पाट कीट तन पेम । खुले कर्मसों समकिती, गोरख धंदा जेम ॥ ४३॥ 5 अर्थ-मूढ है सो भोगकी इच्छा धरे है, फल जोवे है, ताते कर्मबंधका कर्ता होवे है । अर ज्ञानी । है सो भोग भोगे है, पण उदासीनतासे भोगे है ताते तिनकुं नवीन कर्मका लेप होवे नही अरा कृतकर्म खपी जाय है ॥ ४२ ॥ मूढ मिथ्यात्वी है सो नवीन नवीन कर्मका बंध करे है, जैसे रेशमका । कीडा अपने मुखते तार काढि अपने शरीर उपर वेष्टन करे है । अर सम्यक्ती भेदज्ञानी है सोनी कर्मबंधते खुले है; जैसे गोरखधंदा नामका कीडा है सो अपने जाली• फोडके निकले है ॥ ४३॥
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