________________
समय-, है अर तिनकू बंध नहीं है । इत्यादिक कर्मवर्गणाके प्रमुख वस्तुके मिलापसे आत्मायूँ कर्मबंध नहि , सार
होय है, परंतु एक अशुद्ध उपयोग (राग द्वेष अर मोह ) से जीव कर्मबंधळू प्राप्त होय है ॥ ३ ॥ ॥३॥
अ०० - ॥ अव कर्मबंधका कारण अशुद्ध उपयोग है सो कहे है ॥ सवैवा ३१ सा ॥___ कर्मजाल वर्गणाको वास लोकाकाश मांहि, मनवच कायको निवास गति आयुमें ॥ 6 चेतन अचेतनकी हिंसा वसे पुद्गलमें, विषै भोग वरते उदैके उर झायमें ॥
रागादिक शुद्धता अशुद्धता है अलखकि, यहै उपादान हेतु वंधके वढावमें॥ ___ याहिते विचक्षण अबंध कह्यो तिहूं काल, राग द्वेष मोहनांहि सम्यक् स्वभावमें ॥ ४॥ । अर्थ-कर्मजाल वर्गणाका निवास लोकाकाशमें है, [ आत्मामें नहीं है ] मन वचन अर कायके 5/ हूँ योग चारी गती वा चारी आयुष्यमें है [ आत्मामें नही है ] चेतन वा अचेतनकी हिंसा पुद्गलमें है,
[आत्मामें नही है ] इंद्रियके विषयभोग कर्मके उदय माफिक होवे है। [आत्मामें नही है ताते यह है * आत्मा कर्मबंधके कारण नहीं है ] अर राग द्वेष तथा मोहते आत्मा मूढ होय देहादिक परवस्तूकुं ॐ आपना माने है सो अशुद्ध उपयोग है, ताते ये अशुद्ध उपयोगही बंध बढानेकुं मुख्य उपादान कारण है। ६ अर सम्यक् स्वभावमें राग द्वेष अर मोह नहीं है, ताते सम्यग्ज्ञानीळू तीनकाल अबंध कह्या है ॥ ४ ॥ ॥ अव ज्ञाताकू अवंध कह्या पण उद्यमी होय क्रिया करेनेकू कह्या है ॥ सवैया ३१ सा
॥६ ॥ कर्मजाल जोग हिंसा भोगसों न बंधे है, तथापि ज्ञाता उद्यमी वखान्यो जिन वैनमें ॥ . ज्ञानदृष्टि देत विषै भोगनिसों हेत दोउ, क्रिया एक खेत योंतो बने नांहि जैनमें ॥
GORAMCNGRECRUGGREATRESGRACROREACHES