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समय
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॥ अथ श्रीसमयसार नाटकका अष्टम बंधुद्वार प्रारंभ ॥ ८ ॥ ॥ अब सम्यक्ती [ भेदज्ञानी ] कूं नमस्कार करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ - मोह मद पाइ जिन्हे संसारी विकल कीने, याहिते अजानवान बिरद वहत है ॥ ऐसो बंधवीर विकराल महा जाल सम, ज्ञान मंद करे चंद राहु ज्यों गहत है ॥ ताको बल जिवेकों घटमें प्रगट भयो, उद्धत उदार जाको उद्दिम महत है ॥ सो है समकीत सूर आनंद अंकूर ताहि, नीरखि बनारसी नमोनमो कहत है ॥ १ ॥ अर्थ- - इस बंधरूप सुभटनें मोहरूप मदिराका पान करवाय समस्त संसारी जीवकूं विकल करि राख्या है, ताते अज्ञानी होय बंध करनेके बिरद ( पक्ष ) कू निरंतर वहे है । ऐसो. विकराल यह बंघरूप सुभट है सो जगतके जीवकूं महा जाल समान है, अर ज्ञानके प्रकाशकूं मंद करनेवाला है जैसे चंद्रमाके प्रकाशकूं राहु मंद करे है । तिस बंधका बल तोडवेकूं जिसके हृदय में सम्यक्त प्रगट भयां है, सोही बंधकूं विदारण करनेकूं उद्धत ( बलाढ्य ) उदार अर महा उद्यमी है । ऐसे सुरवीर सम्यक्तरूप आनंदअंकूरकूं देखिके, बनारसीदास वारंवार नमस्कार करे है ॥ १ ॥
॥ अव ज्ञानचेतनाका अर कर्मचेतनाका वर्णन करें है ॥ सवैया ३१ सा ॥जहां परमातम कलाको परकाश तहां, धरम धरामें सत्य सूरजकी धूप है | जहां शुभ अशुभ करमको गढास तहां, मोहके विलासमें महा अंधेर कूप है ॥ फेली फिरे घटासी छटासी घन घटा बीचि, चेतनकी चेतना दुधा गुपचूप है ॥ बुद्धीस नही जा बैनसों न कही जाय, पानिकी तरंग जैसे पानी में गुडूप है ॥ २ ॥
सार
अ० ८
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