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लागे है, जिन्हके वचन व्यवहारमें एकळू तोटा अर एककू नफा ऐसा पक्षपात नही है। जे शरीर । ऐसा माने है जैसा धान्यके ऊपरका छीलका अथवा तरवारके ऊपरका म्यान है। जे जीव तथा अजीव
पदार्थक पारखी है अर पांच मिथ्यात्वमें भ्रमका भारत (युद्ध ) चालि रह्या है तिसके साक्षीदार है, MI( पूछनेके स्थानक है ) सोही साधू है अर तिन्हहीकू सत्यार्थ ज्ञान है ॥ ४५ ॥
॥ अव ज्ञानीका निर्भयपणा वर्णन करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥जमकोसो भ्राता दुखदाता है असाता कर्म, ताके उदै मूरख न साहस गहत है। सुरंगनिवासि भूमीवासि औ पतालवासि, सबहीको तन मन कंपत रहत है। ऊरको उजारो न्यारो देखिये सपत भैसे, डोलत निशंक भयो आनंद लहत है ॥ सहज सुवीर जाको साखत शरीर ऐसो, ज्ञानी जीव आरज आचारज कहत है ॥ ४६॥६||
अर्थ-यह असाता कर्म है सो महा दुःख देनेवाला है मानू जमको भाई है, इस असाता कर्मका जब उदय आवे है तब मूर्खजन साहस नहि धारे है । स्वर्गनिवासी देव अर भूमिनिवासी ||मनुष्य तथा पशू अर पातालनिवासी देवता तथा नारकी, इन सब जीवोंका तन अर मन अशाता वेदनी कर्मके उदयते भयभीत कंपायमान होय है। अर जिसके हृदयमें ज्ञानका उजारा है सो सप्त भयते अपने आत्माकू न्यारा देखे है अर निशंक होय ' आनंदसे डोलत फिरे है। जिसकूँ अपने आत्माका वीरपणा सोही शाश्वत ज्ञानरूपी शरीर है ताको भय काहेका है, ऐसे सप्तभय रहित जो ज्ञानी । है सो आर्य ( पवित्र ) है ऐसे आचार्य कहते है।। ४६ ॥