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पुद्गलाकार बहिर्मुख । जब यह विवेक मनमें धरत, तव न वेदना भय
विदित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ ५२ ॥ III अर्थ-जीव है सो ज्ञानी है अर ज्ञान है सो जीवका अभंग अंग है । इस ज्ञानरूप मेरे अभंग
अंगमें जडकर्मकी वेदना नहि व्यापे है । कर्मकी वेदना दोय प्रकारकी है एक सुखमय वेदना अर एक दुखमय वेदना । इह दोनूंहू वेदना मोहका विकार अर जड पुद्गलाकार है सो आत्माते बाह्य है । जब
ऐसा विवेक मनमें धरे है तब वेदनाका भय चितमें नहि उपजे है । ज्ञानी है सो वेदनाकी चिंता नहि हि करे निशंक रहे अर कलंक रहित अपने ज्ञानरूप आत्माकू सदा अवलोकन करे ॥ ५२ ॥
- ॥ अव अनरक्षाके भय निवारणकू मंत्र ( उपाय ) कहे है ॥ ५॥ छपै छंद ॥
जो स्ववस्तु सत्ता खरूप, जगमांहि त्रिकाल गत । तास विनाश न होय, सहज निश्चय प्रमाण मत । सो मम आतम दरव, सरवथा नहि सहाय धर । तिहि कारण रक्षक न होय, भक्षक न कोय पर । जब यह प्रकार निरधार किय, तव अनरक्षा भय नसित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित।।५।।
अर्थ जो सत्तारूप आत्मवस्तु है, सो जगतमें तीनकालमें व्याप्त रहे है। तिस आत्मवस्तुका कदापि नाश नहि होय, यह स्वरूप निश्चय नयके प्रमाणते है । ऐसे मेरा आत्मानामा पदार्थहू सर्वथा । कोईकी साह्यता नहि धरे है । ताते इस आत्माका कोई रक्षक नही अर कोई भक्षक पर नही । जब । इस प्रकार निश्चयरूपका निर्धार करे तब अनरक्षाका भय नाश होजाय है । ज्ञानी है सो निशंक रहे अर कलंक रहित अपने ज्ञानरूप आत्माका सदा अवलोकन करे है ॥ ५३ ॥
RISASIRIRIQARISHIRISGAISA GAISAISASA
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