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है। सोही आत्मध्यानकी सहज समाधि साधि कर्म जनित उपाधी ( राग द्वेष अर मोह ) कू छोडे है, अर आत्माकी आराधना कर परमात्मरूप होय है ॥ १८ ॥
॥ अव ज्ञानते परमात्माकी प्राप्ति होय है तिस ज्ञानकी प्रशंसा करे है। सवैया ३१ ॥ सा ।।जाके उर अंतर निरंतर अनंत द्रव्य, भाव भासि रहे मैं खभाव न टरत है॥ निर्मलसों निर्मल सु जीवन प्रगट जाके, घटमें अघट रस कौतुक करत हैं। जाने मति श्रुति औधि मनपर्ये केवलसु, पंचधा तरंगनि उमगि उछरत है ॥
सो है ज्ञान उदधि उदार महिमा अपार, निराधार एकमें अनेकता धरत है ॥ १९ ॥ है अर्थ-जिस ज्ञानरूप समुद्रमें अनंत द्रव्यके स्वभाव (गुण अर पर्याय ) भासे है, तोहूं पण 5
तिस द्रव्यके स्वभावरूप आप होय नही अर आपने जानपणाके स्वभावकू छोडे नही है । अर ज्ञान-15 * समुद्र में सबते निर्मल आत्म द्रव्य प्रत्यक्ष है, अर अक्षीण आत्मरस क्रीडा करे है । अर जिसमें मति,
श्रुति, अवधि, मनःपर्यय, अर केवल ये पांच ज्ञान है, इनके तरंग उछलि रहे है। ऐसा ज्ञानरूप समुद्र । है सो उदार अर अपार महिमावान् है, तथा कोईके आधार नही है एकरूप है तथापि ज्ञातापणामें | ॐ अनेकता धरे है ॥ १९॥
॥ अव ज्ञान विना मोक्षप्राप्ति नही सो कहें है ॥ सवैया ३१ सा ।।___ केई क्रूर कष्ट सहे तपसों शरीर दहे, धूम्रपान करे अधोमुख व्हैके झूले है ॥ .
केई महा व्रतं गहे क्रियामें मगन रहे, वहे मुनिभार पयार कैसे पूले है ।
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