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समय
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तिनकूं नवीन कर्मका बंध होय. नहीं अर पूर्वकर्मकी निर्जरा होय है, अर विषयसुखकी इच्छा नह करे तथा शरीरमें मोह रखे नहीं तिस कारणते ज्ञानी परिग्रहते अलिप्त कहवाय ॥ ३३ ॥
॥ अव सम्यक्तीकूं संसारीक सुख दुःखकी उपाधि नहि लगे ताका दृष्टांत कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ - जैसे काहु देसको वसैयां बलवंत नर, जंगलमें जाई मधु छत्ताको गहत है ॥ वाकों लपटा चहु ओर मधु मच्छिका पैं, कंवलकि ओटसों अडंकीत रहत है ॥ -तैसे समकीति शीव सत्ताको स्वरूप साधे, उदैके उपाधीको समाधीसि कहत है ॥ पहिरे सहजको सनाह मनमें उच्छाह, ठाने सुख राह उदवेग न लहत है ॥ ३४ ॥
अर्थ — जैसे कोई सशक्त मनुष्य जंगलमें जाय मधु छत्ताकूं निकाले है । तब चारि तरफ मक्षिका लपटाइ जाय है, परंतु कंबल वोढि राख्या है तार्ते तिसकूं मक्षिकाका डंक लगे नही । तैसे सम्यक्ती जीव मोक्षमार्गकूं साधे है, तब कर्मोदयकी अनेक सुख दुःखादि उपाधि आय लागे है, परंतु सम्यक्ती ज्ञान बकतर पहिरे है अर कर्मकी निर्जरा करनेका उच्छाह मनमे धारे है, ऐसे अनंत सुखमें तिष्ठे है ताते सम्यक्तीकूं उपाधीका खेद नहि होय है समाधीसी लागे है ॥ ३४ ॥
॥ अव ज्ञाताका अवधपणा बतावे है ॥ दोहा ॥—
ज्ञानी ज्ञान मगन रहे, रागादिक मल खोइ । चित्त उदास करणी करे, कर्मबंध नहिं होइ ॥ ३५ ॥ मोह महातम मलहरे, घरे सुमति परकास । मुक्ति पंथ परगट करे, दीपक ज्ञान विलास ॥ ३६ ॥
अर्थ — ज्ञानी है सो ज्ञानमें मग्न रहे है, तथा राग द्वेष अर मोहादिक दोषकूं छोड देवे है । अ जे जे संसारीक भोगोपभोगके कार्य है ते सब चित्तमें उदासीनरूप होय करे है, ताते ज्ञानीकूं कर्म -
सार
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