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समय॥५३॥
॥ अव ज्ञानकी महिमा कहे है ॥ दोहा ॥-
बहुविधि क्रियाकलापसों, शिवपद लहे न कोय । ज्ञानकला परकाशते, सहज मोक्षपद होय ॥ २५॥ ज्ञानकला घटघट वसे, योग युक्ति के पार । निजनिज कला उदोत करि, मुक्त होइ संसार ||२६||
अर्थ - नाना प्रकार बाह्य क्रियाके क्लेशते मोक्षपद मिले नहीं, अर सम्यग्ज्ञान कलाके प्रकाशते। सहज (विना क्लेशते ) मोक्षपद मिले है ॥ २५ ॥ ज्ञानकला तो समस्त जीवके घटघटमें बसे है पण मन वचन अर देह इनते अगम्य है । ताते अपनी अपनी ज्ञानकला आपही जाग्रत करके जन्ममरणते मुक्त होहु ऐसा समस्त जीवकूं सद्गुरुका उपदेश है ॥ २६ ॥
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॥ अव अनुभवते मोक्ष होय है ताते अनुभवकी प्रशंसा करे है | कुंडलीया छंद ॥अनुभव चिंतामणि रतन, जाके हिये परकास | सो पुनीत शिवपद लहे, दहे चतुर्गति वास ॥ दहे चतुर्गतिवास, आस धरि क्रिया न मंडे ॥ नूतन बंध निरोधि, पूर्वकृत कर्म विहंडे ॥ ताके न गिणु विकार, न गि
. बहु भार न गिणु भव ।। जाके हिरदे मांहि, रतन चिंतामणि अनुभव ||२७||
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अर्थ — जिसके हृदयमें अनुभव चिंतामणी रत्नका प्रकाश हुवा है । सो पवित्र जीव चतुर्गतीका नाश करके मोक्षपदकूं लहे है । अनुभवी है सो इच्छा रहित चारित्र पाले है तिनते नवीन कर्मके बंधकूं रोकि पूर्वकृत कर्मकी निर्जरा करे है । ताते हे भव्य ? अनुभवी जीवके रागादिककूं तथा परिग्रहके भारकूं दोष मगिणो ॥ २७ ॥
सार.
अ० ७
॥ ५३ ॥