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समय
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॥ अथ श्रीवनारसीदासकृत चतुर्दश गुणस्थानाधिकार प्रारंभ ॥
॥ मंगला चरण ॥ जिनप्रतिमाजीको नमस्कार ॥ दोहा ॥
जिन प्रतिमा जिन सारखी, नमै बनारसि ताहि । जाके भक्ति प्रभावसो, कीनो ग्रंथ निवाहि ॥१॥
अर्थ - जिन प्रतिमा है सो जिनेश्वर समानहि निर्विकार मुद्रा है, तिस निर्विकार प्रतिमाकूं बनारसीदास नमस्कार करे है । जिनके भक्तिके प्रभावसे ग्रंथका गहनार्थहूं सुलभ हो गया है ॥ १ ॥ ॥ अव जिनप्रतिमाके दर्शनका माहात्म्य कथन करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ -
जाके मुख दरससों भगतके नैन नीकों, थिरताकी वानी वढे चंचलता विनसी ॥ मुद्रा देखें केवलीकी मुद्रा याद आवे जहां जाके आगे इंद्रकी विभूति दीसे तिनसी ॥ जाको जस जपत प्रकाश जगे हिरदेमें, सोइ शुद्ध मति होइ हुति जो मलिनसी ॥ कहत वनारसी सुमहिमा प्रगट जाकि, सो है जिनकी छवि सु विद्यमान जिनसी ॥ २ ॥ अर्थ — श्रीजिनप्रतिमा के मुखका दर्शन करनेसे, भक्तजनके नेत्रकी चंचलता मिटिके स्थिरता बानी बढे है । तथा पद्मासन दिगंबर मुद्राकूं देखते ही केवली भगवानके स्वरूपकी याद आये है, अर तिस निर्विकार दिगंबर स्वरूपके आगे इंद्रादिक देवताके शृंगार वैभवादिक शोभा तृणवत् दीसे है । केवली भगवानके गुणानुवाद (चौतीस अतीशय, आठ प्राप्तिहार्य, अर अनंत चतुष्टय ) जपनेसे भक्तके हृदयमें ज्ञानका प्रकाश होय है, अर पूर्वे जो मलीन बुद्धी हुती सो शुद्ध होय है । बनारसीदास कहे है की जिनप्रतिमाकी ऐसी प्रत्यक्ष महिमा है, ताते जिनेंद्रकी प्रतिमा साक्षात जिनेश्वरके समान है ॥ २ ॥
सार•
अ० १३
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