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याज्ञानी जो शुभक्रिया करे है सो बाह्य देखने में मात्र आवे है परंतु कर्मका नाश होना है सो आत्मानु
भवके अभ्यासतेही होय है, ताते ऐसा आत्मानुभवका अभ्यास ज्ञानी अपने ज्ञानमें निरंतर करे है सो || बाह्य दीखनेमें नहि आवे है। आत्मानुभवमें उपाधि (राग, द्वेष, अर इच्छा) नही है आत्माकी समाधि MP (स्थिरपणा) है सोही मोक्ष स्वरूप है, और पाप पुन्य तो पुद्गलकी छाया है सो खेद संता है ॥ ८॥
॥ अव शुभक्रियामें बंध तथा मोक्ष ये दोनूं है सो स्वरूप बतावे है ॥ सवैया २३ सा ॥
मोक्ष खरूप सदा चिन्मूरति, बंध महि करति कही है। जावत काल वसे जह चेतन, तावत सो रस रीति गही है। आतमको अनुभौ जबलों तबलों, शिवरूप दशा निवही है।
अंध भयो करनी जब ठाणत, बंध, विथा तव फैलि रही है ॥ ९ ॥ अर्थ-चिन्मूरति ( आत्मा ) हैं सो सदा मोक्षस्वरूप (अबंध) है, परंतु क्रिया सदा बंध करने-III वाली है। आत्मा जितने कालतक जहां वसे है, तितने कालतक तहां तैसाही रस ग्रहण करे हे । चेतना जहांतक आत्मानुभवमें रहे, तहांतक शुभ क्रिया करे तोहूं मोक्ष स्वरूपमें रहे अर अबंध कहवाय है। अर जब आत्मस्वरूपकू भूलि अंध होय क्रिया करे है, तब क्रियाके रस (बंध) का फैलाव होय है॥९॥
॥ अब मोक्ष प्राप्तीका कारण अंतर दृष्टि है सो कहे है ॥ सोरठा ।अंतर दृष्टि लखाव, अर स्वरूपको आचरण । ए परमातम भाव, शिव कारण येई सदा ॥१०॥ al अर्थ-जो पर स्वरूपमें आत्मपणाका विचार है सो त्याग कर अंतर ज्ञान दृष्टिते आत्माकू देखना
अर अपने ज्ञान तथा दर्शन स्वरूपमें स्थिर रहना । यही परमात्माका स्वभाव है, सो येही परमात्माका । स्वभाव मोक्षप्राप्तिका सदा कारण ( उपाय ) है ॥ १० ॥
WAS A SHORT STARSAGA CLASSICOGRES
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