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समय
सार
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१ अ०४
ऐसी बंध पद्धति वखानी वीतराग देव, आतम धरममें करत त्याग जोग है ॥ भौ जल तरैया रागद्वेषके हरैया महा, मोक्षके करैया एक शुद्ध उपयोग है॥७॥
अर्थ-ब्रह्मचर्य, तप, पंच इंद्रिय निग्रह, व्रत, दान, पूजादिक, इह पुन्य बंधके कारण है, अर अब्रह्म, है (कुशील ) प्रमाद, इंद्रियपुष्टता, अव्रत, लोभ कषाय, विषयभोग, इह पापके कारण है। इन दोऊमें है र एक शुभरूप कर्म है अर अशुभरूपकर्म है, पण आत्माके हितका मूल विचार करिये तो दोऊही कर्मरूप * रोग है । ऐसे बंधके परिपाठीमें वीतराग देवनें कह्या है, ताते आत्मीक धर्ममें ( मोक्षमार्गके पद्धत्तीमें ) १
पुन्य अर पाप दोनूहूं कर्म त्यागने योग्य है । अर संसार समुद्रसे तारनेवाला रागद्वेषकू हरनेवाला तथा स् - महा मोक्षके सुखकू देनेवाला एक शुद्धोपयोग ( आत्मानुभव ) है सो ग्रहण करणे योग्य है ॥ ७ ॥ है
॥ अव अर्धा सवैयामें शिष्य प्रश्नकरे अर अर्धा सवैयामें गुरु उत्तर कहे है ॥३१ सा ॥शिष्य कहे स्वामी तुम करनी शुभ अशुभ, कीनी है निषेध मेरे संशे मन मांहि है ॥ ई मोक्षके सधैया ज्ञाता देश विरती मुनीश, तिनकी अवस्था तो निरावलंब नांहि है ॥
कहे गुरु करमको नाश अनुभौ अभ्यास, ऐसो अवलंब उनहीको उन मांहि है॥ निरुपाधि आतम समाधि सोई शिव रूप, और दौर धूप पुदगल पर छांही है ॥ ८॥
अर्थ-शिष्य पूछे है की हे स्वामी ? आप मोक्ष मार्गमें शुभ अर अशुभ ( पुन्य अर पाप ) के है दोनूं क्रियाका निषेध कीया सो, तिसका मेरे मनमें संशय है । मोक्षमार्गके साधन करनेवाले ज्ञाता जे ॐ अणुव्रती श्रावक तथा महाव्रती मुनी है, सो निरावलंब नहीं है ते तो क्षमादिक वा तपादिक ॐ शुभक्रिया करे ही है अर आप उस शुभ क्रियाका निषेध कैसे कीया ? । तब गुरू उत्तर कहे है की 8
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