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॥ अव सम्यकुज्ञानी भोग भोगवे है तोहूं तिसकूं कर्मका कलंक नहि लगे है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥
जैसे भूप कौतुक स्वरूप करे नीच कर्म, कौतूकि कहावे तासो कोन कहे रंक है ॥ - जैसे व्यभिचारिणी विचारे व्यभिचार वाको, जारहीसों प्रेम भरतासों चित्त बँक है ॥ जैसे धाई बालक चुंघाई करे लालपाल, जाने तांहि औरको जदपि वाके अंक है । तैसे ज्ञानवंत नाना भांति करतूति ठाने, कीरियाको भिन्न माने याते निकलंक है ||४||
अर्थ — कोई राजा ठठ्ठा मस्करीते भाट सारिखा स्वांग धरे तो, तिस राजाकूं कौतुकी कहवाय पण कोई रंक नही कहे है । अथवा जैसे व्यभिचारिणी स्त्री भर्तार के पास रहे पण तिसका चित्त व्यभिचार करने में रहे है, ताते व्यभिचारिणी स्त्रीका जारसे प्रेम रहे अर भर्त्तासे अरुचि रहे है । अथवा जैसे कोई धाई स्त्री होय सो पराया बालककूं स्तनपान अर लालन पालन करे तथा गोदमें लेके बैसे है, पण तिस बालककूं परकाही माने है । तैसे ( इन तीन दृष्टांतके समान्) सम्यक्ज्ञानीहूं नाना प्रकारकी शुभ र अशुभ क्रिया, कर्मके उदय माफिक करे है परंतु तिस समस्त क्रियाकूं आपने आत्म स्वभाव से भिन्न पुद्गलरूप माने है ताते ज्ञानीकूं कर्मका कलंक नहि लगे है ||
॥ पुनः ॥
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जैसे निशि वासर कमल रहे पंकही में, पंकज कहावे पैं न वाके ढीग पंक है | जैसे मंत्रवादी विषधरसों गहावे गात, मंत्री शकति वाके विना विष डंक है ॥ जैसे जीभ हे चिकना रहे रूखे अंग, पानी में कनक जैसे कायसे अटंक है ॥ तैसे ज्ञानवंत नानाभांति करतूति ठाने, कीरियाको भिन्न माने याते निकलंक है ||५||