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कर्मघन तिमिर विनासे । क्षय करि विभाव समभाव भजि, निरविकल्प निज पद हे । निर्मल विशुद्ध शाश्वत सुथिर, परम अतींद्रिय सुखलहे ॥ ११ ॥ अर्थ - भेदज्ञान है सो प्रत्यक्ष आत्माके गुण अर देहादिकके गुण जाने है । अर देहादिकमें पूर्वे जो आत्मपणा माना था ताकूं त्याग कर शुद्ध आत्मानुभवमें स्थिर रहे है । फेरि अनुभवका अभ्यास करे है ताते सहजी संवरका प्रकाश होय है । अर संवरका प्रकाश होते आश्रवके द्वार जे ५ मिथ्यात्व १२ अविरत २५ कषाय १५ प्रमाद अर १५ योग है तिनका निरोध करे है, ताते कर्मरूप महा अंधकारका क्षय होय है । अर राग द्वेष तथा मोह इस परस्वभावका क्षय करि साम्यभावका अवलंबन कर निर्विकल्प आपने निजपद ( मोक्ष ) कूं धारण करें है । तहां निर्मल शुद्ध अनंत अर स्थिर ऐसे परम अतिंद्रिय सुख लहे है ॥ ११ ॥
॥ इति श्रीसमयसार नाटकको छट्टो संवरद्वार बालबोध सहित समाप्त भयो ॥ ६ ॥