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तेहूं संसाररूप कर्दममें डूबे है। अर स्याहादी (जैन सिद्धांत शास्त्रके पारगामी ) है सो अपने पदस्थके अनुसार क्रिया करे है पण क्रियामें आत्मपणाकी बुद्धि नहि धरे है, ज्ञान अर आत्मविचारमें || सावधान रहे है । तेही जीव भव संसार रूप सागरसे तरे है, जे स्याद्वादके महलमें रहे है ते ॥ १५ ॥
॥ अव मूढके क्रियाका तथा विचक्षणके क्रियाका वर्णन करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥जैसे मतवारो कोउ कहे और करे और, तैसे मूढ प्राणी विपरीतता धरत है ॥ अशुभ करम बंध कारण वखाने माने, मुकतीके हेतु शुभ रीति आचरत है ॥ अंतर सुदृष्टि भई मूढता विसर गई, ज्ञानको उद्योत भ्रम तिमिर हरत है।
करणीसों भिन्न रहे आतम स्वरूप गहे, अनुभौ आरंभि रस कौतुक करत है ॥ १६॥5 । अर्थ जैसे कोई मदिरा प्राशन करनेते मनुष्य बोले और अर करे तो और, तैसे मूढ प्राणी | विपरीत ( उलटे ) स्वभावकू धरे है। अशुभ क्रियाकू तो कर्मबंधका कारण समझे है, अर मुक्ति || होनेके कारण कर्मबंध करनेवाली शुभ क्रियाकू करे है । अर ज्ञानीके अंतरंगमें सम्यकदृष्टी प्रगट हुई है ताते मूढपणा जाय है, अर ज्ञानके उद्योतसे भ्रम ( मिथ्यात्व) रूप अंधकारळू हरे है । अर शुभ क्रियासे भिन्न होकर आत्मखरूपको ग्रहण करके, आत्मानुभवके आरंभ रूप रसमें रमे (क्रिडा करे) है ॥१६॥ | ॥ इति श्रीसमयसार नाटकको पुन्यपाप एकत्व करण चतुर्थद्वार बालबोध सहित समाप्त भया ॥ ४॥
RUSSAIRLIQISSARROQQOSHIGASURES -