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-3-455ASSHARASINGH
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॥ अथ श्रीसमयसार नाटकको छठो संवर द्वार प्रारंभ ॥६॥ . . ॥दोहा-आश्रवको अधिकार यह, कह्या जथावत् जेम।
___ अब संवर वर्णन करूं, सुनहु भविक धरि प्रेम ॥१॥ * अर्थ-अब आश्रवके अधिका स्वरूप यथावत (जैसा है तैसा ) कह्या । अब संवरका स्वरूप । कहूंहूं सो भविजन हो तुम प्रेम धरिके श्रवण करो ॥१॥
॥ अव संवर द्वारके आदिमें ज्ञानकू नमस्कार करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥आतमको अहित अध्यातम रहित ऐसो, आश्रव महातम अखंड अंडवत है ॥
ताको विसतार गिलिवेकों परगट भयोः ब्रहमंडको विकाश ब्रहमंडवत है ॥ __ जामें सब रूप जो सबमें सब रूपसों पैं, सबनिसों अलिप्त आकाश खंडवत है ॥... ', . __सोहै ज्ञानभान शुद्ध संवरको भेष घरे, ताकी रुचि रेखको हमारे दंडवत है ॥२॥ है अर्थ-आत्माका अहित करनेवाला अर आत्म स्वरूप रहित ऐसे, आश्रवरूप महा अंधःकारने * अखंड अंडाके समान् जगतके सर्व आत्माकू सब तरफते घेर राख्या है। तिस अंधःकारके विस्तारका - नाश करने• प्रत्यक्ष ज्ञानका प्रकाश ब्रह्मांड.(सूर्य) वत् है, सो समस्त ब्रम्हांड ( त्रैलोक्य ) कू है 15 प्रकाश करनेवाला है। तिस ज्ञानमें समस्त पदार्थों के आकार झलके है अर आपहूं सब पदार्थोंके 18 आकाररूप होय रहे है; तथापि समस्त पदार्थोंसे आकाशके प्रदेश समान अलिप्त है । सो ज्ञानरूप
सूर्य शुद्ध संवरको भेष धरे है, तिसके.प्रकाश• हमारो दंडवत है ॥२॥
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