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॥अथ चतुर्दशम अयोग केवली गुणस्थान प्रारंभ ॥१४॥३१ सा॥8 जहां काहूं जीवकों असाता उदै साता नांहि, काहूंकों असाता नांहि साता उदै पाईये ॥ || मन वच कायासों अतीत भयो जहां जीव, जाको जस गीत जगजीत रूप गाईये ॥ | जामें कर्म प्रकृतीकि सत्ता जोगि जिनकीसि, अंतकाल दै समैमें सकल खपाईये ॥ जाकी थिति पंच लघु अक्षर प्रमाण सोइ, चौदहो अयोगी गुणठाना ठहराईये ॥१०९॥
अर्थ-कोई केवलज्ञानी मुनीकू असाता वेदनी कर्मका उदय रहे अर साता वेदनी कर्मका उदय ।। नही रहे पण सत्तामें तिठे है, तथा कोई केवलज्ञानी मुनीकू साता वेदनी कर्मका उदय रहे अर असाता वेदनी कर्मका उदय नही रहे पण सत्तामें तिष्ठे है । अर जीव जहां मनयोग, वचन योग, अर कायायोगसे रहित भया है, ताते इनकू अयोग केवली कहिए, जिसके जसका वर्णन जगतके जीतवेरूप गाइये है । अर जिसमें सयोग केवलीवत् अघातिया कर्मके प्रकृतीकी सत्ता रही है सो अंत-81 कालके दोय समयमें ८५ (पहिले समयमें ७२ अर दुसरे समयमें १३) प्रकृतीका नाश करके । मोक्ष पधारे है । सोही चौदहवो अयोग केवली गुणस्थान है, इस गुणस्थानकी स्थिती लघु पंच स्वर ( अ इ उ ऋ ल.) के उच्चारवेषं जितना काल लागे तितनी है ॥ १०९ ॥
॥ ऐसे चौदहवे अयोग केवली गुणस्थानका वर्णन समाप्त भया ॥ १४ ॥