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॥ अव जिनप्रतिमाके भक्तका वर्णन करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥- । ' जाके उर अंतर सुदृष्टिकी लहर लसि, विनसी मिथ्यात मोह निद्राकी ममारखी ॥ सैलि जिन शासनकी फैलि जाके घट भयो, गरवको सागि पट दरवको पारखी। आगमके अक्षर परे है जाके श्रवणमें, हिरदे भंडारमें समानि वाणि आरखी॥ ||
कहत बनारसी अलप भव थीति जाकि, सोइ जिन प्रतिमा प्रमाणे जिन सारखी ॥३॥ ___ अर्थ-जिसके हृदयमें सम्यग्दर्शनकी लहेर लगी है, अर मिथ्यात्वमोहरूप निद्राकी मूर्छा विनाश दी हुई है । अर जिसके हृदयमें जिनशासनकी सैलि ( सत्यार्थ देव, शास्त्र अर गुरूकी प्रतीति ) फैली है, अर जो अष्ट गर्वको त्यागीके षट् द्रव्यका पारखी हुवा है । अर जिसके श्रवणमें सिद्धांत शास्त्रका उपदेश पडा है, ताते हृदयरूप भंडारमें ऋषेश्वरकी वाणी समाय रही है। अर तैसेही जिसकी भव-||२|| स्थिति अल्प रही है, सोही निकट भव्यजीव जिन प्रतिमाकू साक्षात जिनेश्वरके समान माने है ऐसे ।
बनारसीदास कहे है ॥ ३॥ अब प्रस्तावनाके दोय चौपाईका अर्थ कहे है - 8 अर्थ-जिनप्रतिमा है सो मनुष्यजनका मिथ्यात्व नाश करनेकू कारण है, तिस जिनप्रतिमा है।
बनारसीदास मस्तक नमायके वंदना करे है, । अर फिर मनमें ऐसा विचार करे की, समयसार ग्रंथमें ।। जैसे आत्मतत्व है तैसे कह्या है ॥ ४ ॥ अर इस ग्रंथमें आत्मतत्वका परिचै है, परंतु आत्माके गुण | स्थानककी रचना नही है । ताते इसिमें गुण स्थानकका रस आवेतो, ग्रंथ अति शोभा पावेगा ॥ ५ ॥
॥ अव गुणस्थानका स्वरूप वर्णन करे है। दोहा ॥यह विचारि संक्षेपसों, गुण स्थानक रस चोज । वर्णन करे बनारसी, कारण शिव पथ खोज ॥६॥
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