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॥अथ चतुर्थ सम्यक्त गुणस्थान प्रारंभ ॥४॥स०३१ सा ॥केई जीव समकीत पाई अर्ध पुदगल, परावर्तकाल ताई चोखे होई चित्तके ॥ - केई एक अंतर महूरतमें गंठि भेदि, मारग उलंघि सुख वेदे मोक्ष वित्तके ।।
ताते अंतर महूरतसों अर्ध पुद्गललों, जेते समै होहि तेते भेद समकितके ॥
जाहि समै जाको जब समकित होइ सोइ, तवहीसों गुण गहे दोष दहे इतके ॥ २४ ॥ - अर्थ-केई जीव सम्यक्त ग्रहण करके अर्द्ध पुद्गल परावर्तन कालपर्यंत चिचके शुद्ध होय मोक्षको । जाय है । अर केई जीव मिथ्यात्व गाठीकू भेदे है अर सम्यक्त ग्रहण करके अंतर्मुहूर्तमें चारौं 15 गतीका मार्ग उलंघी मोक्षरूप वित्तका सुख भोगे है । ताते सम्यक्त ग्रहण करेबाद संसारके भ्रमणकी
जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्तकी है, उत्कृष्ट स्थिति अर्ध पुद्गल परावर्तनकी है, अर अर्ध पुद्गल परावर्तनके । Kाजितने समय है तितने सम्यक्तके भेद. होय है पण मोक्ष जानेके काल अपेक्षेसे होय है सो एक एक
समयकी वृद्धी करता जितने भेद होय है सो सब मध्यम स्थितिके भेद है। भावार्थ-जीव जब सम्यक्त ग्रहण करे तबसे आत्मगुण धारण करने लगजाय अर संसारके दोष क्षय करने लगजाय है ॥ २४ ॥ | ॥ अव सम्यक्त उत्पत्तीकू अंतरंग कारण आत्माके शुद्ध परिणाम है सो कहे है । दोहा ॥1
अध अपूर्व अनिवृत्ति त्रिक, करण करे जोकोय। मिथ्या गंठि विदारि गुण, प्रगटे समकित सोय ॥ all अर्थ-अधःकरण ( आत्माके शुद्ध परिणाम ) अपूर्व करण (पूर्वे नहि हुवे ऐसे शुद्ध परिणाम)
अर- अनिवृत्ति करण ( नहि पलटे ऐसे शुद्ध परिणाम ) इन तीन करणरूप जो कोई परिणाम करे । तब तिसकी मिथ्यात्वरूप गांठ विदारण होयके आत्मानुभव गुण प्रगटे सोही सम्यक्त है ॥ २५ ॥
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