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सार. अ० १३
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समय-९॥ अव निश्चै, व्यवहार, सामान्य, अर विशेष, ऐसे सम्यक्तके चार प्रकार है सो कहे है ॥ ३१ सा ॥ सोरठा॥//રિતા
मिथ्यामति गंठि भेदि जगी निरमल ज्योति।जोगसों अतीत सोतो निह प्रमानिये॥ वहै दुंद दशासों कहावे जोग मुद्रा धारि । मति श्रुति ज्ञान भेद व्यवहार मानिये ॥ चेतना चिहन पंहिचानि आपा पर वेदे, पौरुष अलप ताते सामान्य वखानिये ॥
करे भेदाभेदको विचार विसताररूप, हेय ज्ञेय उपादेय सो विशेष जानिये ॥ ५१ ॥ ___ अर्थ–मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अर अंतराय इन चार घातिया कर्मका क्षय
करि जिसकू निर्मल आत्मज्योति जगी, होय, अर मन वचन काय इनिके योगसे रहित होय सो 6 ( केवलज्ञानी ) निश्चय सम्यक्त हैं । अर दिगंबर दीक्षा धारण करके जो आत्मध्यानहूं धरे अर 8 आहारादिककी इच्छाभी करे ऐसे द्वंद्व दशाकू वर्ते है, सो मति अर श्रुति ज्ञानका भेद जो पर्यंत है । * तो पर्यंत व्यवहार सम्यक्त है । अर जो आत्मखरूप पहचाने पण पुद्गल है कर्मके सुख अर दुःखकू है वेदे है, अर.चारित्र मोहनी' कर्मके उदते अल्प पुरुषार्थ (अणुव्रत ) धरे वा अविरति रहे सो * सामान्य सम्यक्त है । अर,आत्मा गुणी है ज्ञान गुण है ऐसे भेदाभेदका जो विस्ताररूप विचार करे, ॐ अर त्यागने योग्य वस्तुकू त्यागे तथा ग्रहण करने योग्य वस्तुकू ग्रहणे करे सो विशेष सम्यक्त है ॥५१॥
तिथि सागर तेतीस, अंतर्मुहूरत एक वा अविरत समकित रीत, यह चतुर्थ गुणस्थान इति॥५२॥ ६ १ अर्थ-चौथे अविरत सम्यक्त गुणस्थानकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरकी है अर जघन्य स्थिति ॐ अंतर्मुहूर्तकी है ॥ ५२ ॥ ऐसे.चौथे अविरत गुणस्थानका कथन समाप्त भया ॥ ४ ॥
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