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॥ अथ अष्टम अपूर्व करण गुणस्थान प्रारंभ ॥ ८ ॥ चौपई ॥अब वरणूं अष्टम गुणस्थाना । नाम अपूरव करण वखाना || कछुक मोह उपशम करि राखे । अथवा किंचित क्षय करि नाखे ॥ ९३ ॥ जे परिणाम भये नहि बही । तिनको उदै देखिये जबही ॥ तव अष्टम गुणस्थानक होई । चारित्र करण दूसरो सोई ॥ ९४ ॥ अर्थ — जो चारित्र मोहनीय कर्मका कछुक उपशम करे सो उपशम श्रेणी चढे अर कछुक क्षय | करे सो क्षायक श्रेणी चढे ऐसे सातवे गुणस्थानके अंतमें दोय मार्ग है ॥ ९३ ॥ जिस मुनीका सातवे अप्रमत्त गुणस्थानके अंतमें चारित्र मोहनीय कर्मकूं क्षय करनेका कारण ऐसा चारित्रका जो द्वितीय अपूर्व करण ( कबही शुद्ध परिणाम नहि भये ऐसे शुद्ध परिणाम ) का उदय होवे तब आठवा अपूर्व | करण गुणस्थान होय ॥ ९४ ॥ ऐसे आठवे अपूर्व करण गुणस्थानका वर्णन समाप्त भया ॥ ८ ॥ ॥ अथ नवम अनिवृत्ति करण गुणस्थान प्रारंभ ॥ ९ ॥ चौपई ॥अब अनिवृत्ति करण सुनि भाई । जहां भाव स्थिरता अधिकाई ॥ पूरव भाव चलाचल जे ते । सहज अडोल भये सब ते ते ।। ९५ ।। जहां न भाव उलट अधि आवे । सो नवमो गुणस्थान कहावे ॥
चारित्र मोह जहां बहु छीजा । सो है चरण करण पद तीजा ॥ ९६ ॥ अर्थ- जब परिणाम अधिकाधिक शुद्ध करे । तब पूर्वे जे कषायके उदयते परिणाम चलाचल होते थे ते सब सहज स्थिर हो जाय है ॥ ९५ ॥ जो मुनी आठवे अपूर्व करण गुणस्थानके अंतमें