________________
समय६ .: थविर कल्प धर कछुक सरागी। जिन कल्पी महान वैरागी ॥ .
सार. ॥४॥
. . . इति प्रमत्त गुणस्थानक धरनी। पूरण भई जथारथ वरनी ॥ ९१ ॥ । अ०१ हूँ अर्थ-ऐसे नाना प्रकारके परिषह सहन करके मोक्ष मार्ग साधे है ताते स्थविर कल्पी अर जिन-2 हूँ कल्पी दोऊ प्रकारके निग्रंथ मुनीकी समानता है ॥ ८९ ॥ जो मुनी शिष्य शाखामें रहे सो स्थविर कल्पी र हैं किंचित् सरागी है । अर जो मुनी येकल विहारी होय विछरे है सो जिनकल्पी महान वैरागी है॥ ९०॥ है ऐसे छठे प्रमत्त गुणस्थानका वर्णन समाप्त भया ॥६॥
॥अथ सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान प्रारंभ ॥७॥ चौपाई ॥ दोहा॥
अब वरणो सप्तम विसरामा । अपरमत्त गुणस्थानक नामा ॥ ॐ जहां प्रमाद क्रिया विधि नासे । धरम ध्यान स्थिरता परकासे ॥ ९२॥
प्रथम करण चारित्रको, जासु अंत पद होय । जहां आहार विहार नही, अप्रमत्त है सोय ॥१३॥ 2. अर्थ—सातवा अप्रमत्त गुणस्थान है सो विश्राम -( स्थिरता )का स्थान है तिसका अब वर्णन है 2 करूंहूं-जो मुनी छठे गुणस्थानके अंतमे पंच प्रमादकी क्रियाकू छोडे है अर स्थिरतासे धर्मध्यानका
प्रकाश करे है ॥. ९२ ॥ सो मुनी प्रमत्त गुणस्थानके अंतमें चारित्र मोहनी कर्मकू क्षय करनेका कारण है हूँ ऐसा चारित्रका प्रथम करण जो अधःकरण (परिणामकी अत्यंत शुद्धि) करे है। तब आहार विहारादि * है रहित होय धर्म ध्यानमें स्थिर होय है. सो सातवा अप्रमत्त गुणस्थान है ॥ ९३ ॥ ऐसे सातवे अप्रमत्त हूँ
शाद ॥१४॥ * गुणस्थानका वर्णन समाप्त भया ॥ ७ ॥
SANGREGAGROGREntertacksekecret