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॥ अव नयके जालते शिष्यकं संदेह उपजे तिसकूं गुरु उत्तर कहे है ॥ सबैया ३१ सा ॥— शिष्य कहे स्वामी जीव स्वाधीनकी पराधीन, जीव एक है कीधो अनेक मानि लीजिये || जीव है सदवकी नही है जगत मांहि, जीव अविनश्वरकी विनश्वर कहीजिये ॥ सदगुरु कहे जीव है सदैव निजाधीन, एक अविनश्वर दरव द्रिष्टि दीजिये || जीव पराधीन क्षणभंगुर, अनेक रूप, नांहि जहां तहां पर्याय प्रमाण कीजिये ॥ ९ ॥
अर्थ - शिष्य पूछे हे स्वामी ? जीव स्वाधीन है की पराधीन है, जीव एक है की अनेक है । जीव | जगतमें सदैव है की नही है, जीव अविनाशिक है कि विनाशिक है । तब सद्गुरु कहे हे शिष्य ? | जीव है सो द्रव्यदृष्टी स्वाधीन है, लक्षणते एक है, सदैव है, अविनाशी है । अर पर्याय दृष्टीते कर्मके अपेक्षा पराधीन है, परिणामके अपेक्षा क्षणभंगुर है, गत्यादिकके अपेक्षा अनेक है, शरीरअपेक्षा नाशिवंत है ऐसे द्रव्यदृष्टी अर पर्यायदृष्टी दोनूं नयहूं प्रमाण करना ॥ ९ ॥
॥ अव द्रव्य क्षेत्र काल अर भाव अपेक्षा अस्ति नास्ति स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ -- द्रव्य क्षेत्र काल भाव चारों भेद वस्तुही में, अपने चतुष्क वस्तु अस्तिरूप मानिये ॥ परके चतुष्क वस्तु नअस्ति नियत अंग, ताको भेद द्रव्य परयाय मध्य जानिये ॥ दरव जो वस्तु क्षेत्र सत्ता भूमि काल चाल, स्वभाव सहज मूल शकति वखानिये ॥ याही भांति पर विकलप बुद्धि कलपना, व्यवहार दृष्टि अंश भेद परमानिये ॥१०॥ अर्थ- - द्रव्य क्षेत्र काल अर भाव ये चतुष्टय ( चार भेद ) सर्व वस्तुमें रहे है, निश्चय नयते अपने स्वचतुष्टय अपेक्षासे वस्तु अस्तिरूप है जैसे स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल अर स्वभाव इनके अपे