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| जिसके भव भ्रमणकी स्थिति घट गई ताते मुक्ति समीप भई है । तिस जीवके मनरूप सीपमें सुगुरूके वचनरूप मेघके जलसे अमोलीक मोती होय है भावार्थ - तिसही जीवकं गुरूके वचन रुचे है ॥ ३ ॥
॥ अव सद्गुरूकूं मेघकी उपमा देके प्रशंसा करे है ॥ दोहा ॥
ज्यों वर्षे वर्षा समें, मेघ अखंडित धार। त्यों सद्गुरु वाणी खिरे, जगत जीव हितकर || ४ || अर्थ — जैसे वर्षाऋतु मेघ अखंडित धारा वर्षे है । तैसे सद्गुरु होय ते जगतके जीवकूं हित कारक अमृत वाणीका उपदेश करे है ॥ ४ ॥
॥ अव सद्गुरु आक्षेपिणी धर्म कथाका उपदेश करे है ॥ सवैया २३ सा ॥चेतनज़ी तुम जागि विलोकहुं, लागि रहे कहां मायाके तांई ॥ आये. कहीसों कही तुम जाहुंगे, माया रहेगि जहाके तहांई ॥ माया तुमारी न जाति न पातिन, वंशकि वेलि न अंशकि झांई ॥ दास किये विन लातनि मारत, ऐसि अनीति न कीजे गुसांई ॥ ५ ॥
अर्थ - अहो चेतनजी ? तुम मोहनिद्रा छांडि जाग्रत होके अपना स्वरूप देखो, मायारूप संपदाके | पीछे क्यों लगे हो। तुम कहांसे आये हो अर कहां जानेवाले हो ये कुछ विचार करो, इह संपदा जहांकी तहांही रहेगी । इह तुमारे जातीवंशकी अर संबंधी नही है, तथा इसमें तुमारा अंशहूं नही है । दासी किये ( ज्ञान संपादन कीये ) विना तिसकूं लात मारते ( त्याग करते ) हो, सो हे महंत ऐसी अनीति न कीजिये भावार्थ- ज्ञान संपादन करके फेर संपदादिका त्याग करना ॥ ५ ॥ माया छाया एक हैं, घटे बढे छिन मांहि, इनके संगति जे लगे; तिन्हे कहुं सुख नांहि ॥ ६ ॥