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वोही धून सूनि कोउ हे कोउ रहे सोइ, काहूकों विषाद होइ कोउ हरखत है ॥ १४ ॥ अर्थ — जैसे कोई बनमें वर्षा समय पायके, अपने स्वभावतेही महा मेघकी वर्षा होय है । पण तिस बनमें आमली बबूल निंब मिरच मधुर अर क्षार जहां जैसा जैसा वृक्ष वा स्थान है, तहां तैसा तैसा रस वर्षा के संयोगते बढे है । तैसे ज्ञानवंत मनुष्य आत्महितका धर्मोपदेश करे है तब, यह मेरा श्रोता है अर यह मेरा श्रोता नही ऐसा राग अर द्वेष नही धरे है परंतु कोई श्रोता उपदेश सुनि | परमार्थकं ग्रहण करे है अर कोई श्रोता निद्रा लेय रहे है, कोई मिथ्यात्वी श्रोता द्वेष करे है अर कोई सम्यक्ती श्रोता हर्षायमान होय है ॥ १४ ॥
गुरु उपदेश कहाँ करे, दुराराध्य संसार | वसे सदा जाके उदर, जीव पंच परकार ॥ १५ ॥
अर्थ - गुरूका उपदेश क्या करेगा ? दुराराध्य संसारी जीवकूं आत्माका हित समझना कठीण है । इस संसार में सदाकाल पांच प्रकारके जीव रहे है तिन्हके नाम कहे हैं ॥ १५ ॥ हुंघां प्रभु चूंघा चतुर, सूंघा रूंचक शुद्ध । ऊंघा दुर्बुद्धी विकल, मूंगा घोर अबुद्ध ॥ १६ ॥ अर्थ — डूंघा जीव प्रभु है, चुंघा जीव चतुर है, सूंघा जीव शुद्ध रुचिवंत है, ऊंघा जीव दुर्बुद्धी है, अर घूंघा जीव घोर अज्ञानी है, ॥ १६ ॥
॥ अव डूंघा जीवका लक्षण कहे है ॥ १ ॥ दोहा ॥ -
जाके परम दशा विषे, कर्म कलंक न होय । डूंघा अगम अगाधपद, वचन अगोचर सोय ॥ १७॥ अर्थ—जिसके आत्मामें कर्म कलंक नही अर जिसके अगम्य अगाध पद ( मोक्ष स्थान ) है । तिस मोक्षवासी सिद्ध जीवकूं डूंघा जीव कह्या है सो वचन अगोचर है ॥ १७ ॥