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समय॥११७॥
अर्थ – कोई मूढ कहे की वस्तु जितनी छोटि अथवा बडी होय, तिस वस्तुके क्षेत्र प्रमाणही ज्ञान परिणमे है कछु कम अथवा ज्यादा ज्ञान होय नही । ऐसे ज्ञानकूं तीन काल पर क्षेत्रसे व्याप्य अर परद्रव्यसे परिणमे (ज्ञेय अर ज्ञान एकरूप हुवो) माने है, पण ज्ञान आत्मरूप जाने नही ऐसी मिथ्यादृष्टीकी दौड है | तिसकूं जैनमती स्याद्वादी कहे की जीवकी सत्ता त्रैलोक्य प्रमाण है तितनी ज्ञानकी सत्ता है, सो सत्ता पर द्रव्यसे अव्यापक अर जगतमें श्रेष्ठ है । यद्यपि ज्ञानके प्रभामें अनेक ज्ञेय प्रतिबिंबित होय है, तथापि ज्ञेयमें ज्ञान मिले नही दोनू की स्थिति न्यारी न्यारी है ॥ १९ ॥
॥ अव जीवमें जीव है जगमें जीव नही इस अष्टम नयका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥—
शुन्यवादी कहे ज्ञेयके विनाश होत, ज्ञानको विनाश होय कहो कैसे जीजिये ॥ ताते जीवितव्य ताकी थिरता निमित्त सव, ज्ञेयाकार परिणामनिको नाश कीजिये ॥ सत्यवादी कहे भैया हुजे नांहि खेद खिन्न, ज्ञेयसो विरचि ज्ञानभिन्न मानि लीजिये ॥ ज्ञानकी शकति साधि अनुभौ दशा अराधि, करमकों त्यागिके परम रस पीजिये ॥२०॥
अर्थ — कोई शुन्य ( नास्तिक ) वादी कहे की ज्ञेयका नाश होते ज्ञानका नाश होय, ज्ञान अर जीव एक है सो ज्ञानका नाश होते जीवका पण नाश होय है तो फेर कैसो जगना होयगा । ताते जीव शाश्वत रहनेके अर्थी, ज्ञानमें ज्ञेयके आकार परिणमे है तिसका नाश करिये तो जीवकी स्थिरता होयगी । तिसकूं सत्यवादी कहे हे भाई ? तुम खेद खिन्न मत होहूं, तुमने ज्ञान अर ज्ञेय एक माना है सो भिन्न भिन्न मानो । अर ज्ञानकी ज्ञायक शक्ति साधन करिके आत्मानुभवका अभ्यास करो, तथा कर्मका क्षय करिके मोक्षपद पावो तहां अनंत ज्ञानरूप अमृत रस सदा पीवो ॥ २० ॥
सार. अ० ११
॥११७॥