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लागि तन कष्ट व्है सपष्ट अष्ट करमको, करि थान भ्रष्ट नष्ट करे और करसें ।' L)-सोई विकलप विजई अलप कालं मांहि, सागि भौ विधान निरवाण पद दरसे ॥ ११५॥
अर्थ-कोई दर्शन ज्ञान अर चारित्रकू आत्मस्वरूमें मानि स्थीर रहे है, सोही संशय रहित होय । देहादिक पर वस्तुरूं आपनी नहीं माने।शुद्ध आत्मस्वरूपका विचार करे ध्यान धरे अर क्रिडा करे है, अर आत्मामें स्थीर होय महा आनंदरूप अमृत धारा वरसे है। आत्मामें तल्लीन होनेसे शरीरके कष्टकं । नहि गिणे तव निस्पृही होयके अष्ट कर्मळू खैचि' निर्जरा करे, तथा कर्मबंधका क्षय करे । सोही अनुभवी विकल्प रहित होय अल्प कालमें, जन्म मरणते छूटि मोक्षस्थानकुं प्राप्त होय है ॥ ११५ ॥
" ॥ अव गुरू आत्मानुभवका उपदेश करे है ॥ चौपई ॥ दोहा ।sil . गुण पर्यायमें दृष्टि न दीजे । निर्विकल्प अनुभव रस पीजे ॥
- आप समाइ आपमें लीजे । तनुपा मेटि अपनपो कीजे ॥ ११६॥ तज विभाव हुजे' मगन, शुद्धातम पद मांहि । एक मोक्षमारग यहै, और दूसरो नांहि ॥११७॥ ॥ Pा अर्थ-आत्माके गुण अर पर्याय अनेक है तिसमें दृष्टि न देके तथा विकल्प रहित होके आत्म |
अनुभवरूप अमृत रस पीवो । अर आपने आत्मामें आप लय लगावो तथा शरीरका अहंपणा ताछोडिके आत्मामें स्थिर रहो ॥ ११६ ॥ परके भावकू छोडि शुद्ध आत्मस्वरूपमें मग्न होना । यह है अद्वितीय मोक्ष मार्ग है ऐसा दुसरा मोक्ष मार्ग नहीं ॥ ११७ ॥ .
॥ अव आत्मानुभव विना जिन (नग्न) दीक्षा पण अव्रती है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा॥केई मिथ्यादृष्टि जीव धरे जिन मुद्रा भेष, क्रियामें मगन रहे कहें हम यंती है ।
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