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₹ भावकर्म कर्त्तव्यता, स्वयंसिद्ध नहि होय । जो जगकी करणी करे; जगवासी जिय सोयं ॥२२॥ जिय कर्ता जिय भोगता, भावकर्म जियचाल। पुद्गल करे न भोगवे, दुविधा मिथ्याचाल ॥२३॥
ताते भावित कको, करे मिथ्याती जीव। सुख दुख आपद संपदा, मुंजे सहज सदीव ।। २४॥ ॐ अर्थ-गुरू कहे है हे शिष्य ? एक क्रियाके करनेवाले दोय होय अथवा एककी क्रिया दूसरा है ॐ करे ऐसी वात जिन शास्त्रमें नही कही है ॥ २०॥ क्रिया करे एक अर तिस क्रियाका फल भोगवे, है दूसरा येहूं नहि बनसके । जो करे सो भोगवे यह न्याय यथायोग्य है ॥२१॥ भावकर्मकी कर्तव्यता 8 है स्वयंसिद्ध नहि होय है । जगतमें जे गमनागमन क्रिया करे है सोही भावकर्मका कर्त्ता जगवासी * जीव है ॥ २२ ॥ जीवही भावकर्मका कर्ता है जीवही ‘भावकर्मके फलका भोक्ता है अर जीवकेही है
चल विचलतासे भावकर्म उपजे है । भावकर्मळू पुद्गल करेही नही अर भोगवेही नही है तथा भाव-* ६ कर्मकू जीव अर पुद्गल दोऊ मिलकेहूं करे है ऐसा कहना मिथ्या है ॥ २३ ॥ ताते भावकर्म• मि६ थ्यात्ती ( अज्ञानी ) जीव करे है । अर भाव कर्मके फ़ल जे सुख अर दुःख तेहूं अज्ञानी जीव है हूँ सदाकाल आपही भोगवे है ॥ २४॥.
॥ अव एकांतवादी कर्मविर्षे कैसा विचार करे है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥कोइ मूढ विकल एकंत पक्ष गहे कहे, आतमा अकरतार पूरण परम है ॥
तिनसो जु कोउ कहे जीव करता है तासे, फेरि कहे करमकों करता करम है ॥ ६ : ...ऐसे मिथ्यामगन मिथ्याती ब्रह्मघाती जीव, जीन्हके हिये अनादि मोहको भरम है।
तिनके मिथ्यात्व दूर करवेकू कहे गुरुः स्यादवाद परमाण आतम-धरम है ॥२५॥
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