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अर्थ-जो शुद्ध आत्मद्रव्यका अनुभव करे है तिसके हृदयमें शुद्ध दृष्टि (जाणपणा ) है । ऐसा भेदज्ञानी सम्यक्ती पुरुष है सो वस्तु स्वभावका लोप नहि करे है ॥ ५६ ॥
॥ अव ज्ञान है सो परवस्तुमें अव्यापक है ते ऊपर चंद्रकीर्णका दृष्टांत कहे है ॥ ३१ सा ॥जैसे चंद्र कीरण प्रगटि भूमि खेत करे, भूमिसी न होत सदा ज्योतिसी रहत है ॥ ' तैसे ज्ञान शकति प्रकाशे हेय उपादेय, ज्ञेयाकार दीसे पैं न ज्ञेयको गहत है। ol शुद्ध वस्तु शुद्ध परयायरूप परिणमे, सत्ता परमाण मांहि ढाहे न ढहत है। हैं सोतो औररूप कबहू न होय सखथा, निश्चय अनादि जिनवाणि यों कहत है ॥५७॥
अर्थ-जैसे रात्री चंद्र कीर्णका प्रकाश भूमिळू स्वेत करे है, परंतु चंद्रका कीर्ण भूमि समान नहि || होय है प्रकाशरूपही रहे है । तैसे ज्ञानकी शक्तींहू ऐसे है की समस्त हेय उपादेय वस्तुकं प्रकाशे है, तब ज्ञान है सो वस्तुके आकाररूप भासे है परंतु वस्तुके स्वभावकं धारण करे नही । शुद्धवस्तु शुद्ध पर्यायरूप परिणमे है, तथा अपने सत्ता प्रमाणमें रहे है किसीके ढाक्या नहि ढके । अर दुसरे वस्तुके। ६ स्वरूप समान कबहूं नहि होय यह निश्चये है, ऐसे अनादि कालकी जिनवाणी कहे है ॥ ५७ ॥ ।
॥ अव आत्मवस्तुका यथार्थ स्वरूप कहे है ॥ सवैया २३ सा ॥राग विरोध उदै जबलों तबलों, यह जीव मृषा मग धावे ॥ ज्ञान जग्यो जव चेतनको तब, कर्म दशा पर रूप कहावे ॥ कर्म विलक्ष करे अनुभौ तहां, मोह मिथ्यात्व प्रवेश न पावे ॥ मोह गये उपजे सुख केवल, सिद्ध भयो जगमांहि न आवे ॥ ५८॥
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