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॥ अव कर्मका प्रपंच, मिथ्या है सो दिखावे है ॥ दोहा ॥
मैं यौं कीनो यौं करौं, अब यह मेरो काम | मनवचकायामें वसे, ये मिथ्यात परिणाम ||१२|| | मनवचकाया कर्मफल, कर्मदशा जडअंग । दरवित पुद्गल पिंडमें, भावित कर्म तरंग ॥ ९३ ॥ ताते भावित धर्मों, कर्म स्वभाव अपूठ । कोन करावे को करे, कोसर लहे सब झूठ ॥९४ ||
अर्थ- मैं यौं कीया है अर यौं करूंगा, अब जो करूं सो मैं करूंहूं । ऐसे मन वचन अर कायामें अहंकार रहना, सो मिथ्या परिणाम है ॥ ९२ ॥ मन वचन अर कायाके योग है ते पूर्व कृतकर्मके फल है, अर कर्मकी दशा है ते जडरूप है । तिस द्रव्यकर्म जड पिंडमें राग, द्वेष उपजे है, सो भावकर्मके अज्ञान तरंग है ॥ ९३ ॥ आत्माके भावित धर्म ( ज्ञानगुण ) में, कर्म स्वभाव नही है । ताते. कर्मकूं करावे कोण, करे कोण अर अनुमोदे कोण, इस कर्मका प्रपंच सब झूठ है ॥ ९४ ॥ ॥ अव मोक्षमार्गमें क्रियाका निषेध है सो कहे है ॥ दोहा ॥ सवैया ३१ सा ॥ —
करणी हित हरणी सदा, मुक्ति वितरणी नांहि । गणी बंध पद्धति विषे, सनी महा दुखमांहि ॥९५॥
अर्थ — क्रिया है सो आत्माका अहित करणारी है, मुक्ति देणारी नही है । ताते क्रियाकी गणना बंध पद्धतीमें करी है, क्रिया में महादुःख वसे है सो आगेके सवैयामें कहे है ॥ ९५ ॥
करणी धरणीमें महा मोह राजा वसे, करणी अज्ञान भाव राक्षसकी पुरी है | करणी करम काया पुगलकी प्रति छाया, करणी प्रगट माया मिसरीकी छुरी है ॥ करणीके जाल में उरझि रह्यो चिदानंद, करणीकि उट ज्ञानभान दुरी है ॥. आचारज कहे करणीसों व्यवहारी जीव, करणी सदैव निहचे स्वरूप वुरी है ॥ ९६ ॥ |
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