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रूप रस गंध फास पुदगलको विलास, तासों उदवस जाको जस गाइयतु है | विग्रहसों विरत परिग्रहसों न्यारो सदा, जामें जोग निग्रहको चिन्ह पाइयतु है ॥ सो ज्ञान परमाण चेतन निधान तांहि, अविनाशी ईश मानी सीस नाइयतु है ॥ १०६ ॥ अर्थ — आत्मा है सो निर्भय अर- शाश्वत सुखी है तथा भेद रहित वेद अगम्य ( ज्ञानगम्य ) है, तिस ज्ञान ज्योतीमें समस्त जगत समावे है । रूप रस गंध अर स्पर्श ये जो देहके विलास है, इनसे उदवस ( रहित ) आत्मा है ऐसे सब शास्त्रमें कह्या है | शरीरादिकसे विरत ( रहित ) अर परिग्रहसे | सदा न्यारो है, आत्मामें तीन योग रहितपणाका चिन्ह पामिये है । ऐसे आत्मा ज्ञान प्रमाणयुक्त है। अर चेतनाका निधान है, तिस आत्माकूं अविनाशी ईश्वर मानि हम मस्तक नमावीये है ॥ १०६ ॥ ॥ अव सिद्ध आत्माका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥
जैसे निरभेदरूप निहचै अतीत हुतो, तैसे निरभेद अब भेद कोन कहेगो || दीसे कर्म रहित सहित सुख समाधान, पायो निजथान फिर वाहिर न वहगो ॥ कबहु कदाचि अपनो स्वभाव त्यागि करि, राग रस राचिके न पर वस्तु गहेगो || अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयो, याही भांति आगामि अनंत काल रहेगो ॥ १०७ ॥ अर्थ - जैसे अतीत कालमें संसार अवस्थाविषे पण आत्मद्रव्य निश्चय नयसे अभेदरूप मान्यो हुतो, तैसाही केवल ज्ञान प्राप्त होते प्रत्यक्ष अभेदरूप रहे है तिस परमात्माकूं अब भेदरूप कोन कहेगो । अर जो अष्टकर्म रहित होय सुख समाधिरूप अपने स्वस्थान (मोक्ष) पायो है, सो फेरि बाह्य संसार में नहि आवेगो । मोक्षको गयो सिद्ध जीव है सो कदाचितहूं कोई कालमें अपने केवल ज्ञान स्वभावकूं।