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सार.
समय
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एतेपर भिन्नतान भासेजाव करमकि, जौलों मिथ्याभाव तौलों ओंधि वाउ वही है। ज्ञानके उद्योत होत ऐसी सूधी दृष्टि भइ, जीव कर्म पिंडको अकरतार सही है ॥१२॥ अर्थ-जीव अर पुद्गलकर्म एक क्षेत्र (आकाश) में बसे है, तथापि जीवकी सत्ता जीवमें है अर पुद्गलकी सत्ता पुद्गलमें है ऐसी दोनूंकी सत्ता न्यारी न्यारी है । जीवके अर पुद्गलके लक्षण भेद है तैसे स्वरूपमें पर्यायमें गुणमें अर प्रकृतीमेंहूं भेद है, ताते जीवकी अर पुद्गलकी अनादि कालते दुविधा चली आवे है । ऐसे दुविधा है तोहूं जबतक अज्ञान भाव है तबतक उलटा विचार चले है, जीवकी अर कर्मकी दुविधा नहि दीसे है । अर जब ज्ञानका उदय होय तब सूधी दृष्टी (विचार) होयकै, जीव कर्मका अकर्ताही दीसे है ॥ १२ ॥ ए एक वस्तु जैसेजु है, तासें मिले न आन।जीव अकर्ता कर्मको, यह अनुभौ परमान ॥१३॥ ६ अर्थ जैसे एक गुणके वस्तुमें दूजी अन्य गुणकी वस्तु नहि मिले है । तैसे जीवके चेतन हूँ गुणमें कर्मपुद्गलका अचेतन गुण नहि मिले है तातै जीव कर्मका अकर्ता है, यह परिचै प्रमाणहै ॥१३॥ है ॥ अब अज्ञानी है सो भाव भावित कर्मका अर अशुद्ध परिणामका कर्ता होय है सो कहे है ॥ चौपई -
जो दुरमति विकल अज्ञानी । जिन्हे व रीत पर रीत न जानी ॥
माया मगन भरमके भरता । ते जिय भाव करमके करता ॥ १४ ॥ जे मिथ्यामति तिमिरसों, लखेनजीव अजीव । तेई भावित कर्मको, कर्ता होय सदीव ॥१५॥ जे अशुद्ध परणति धरे, करे अहंपर मान । ते अशुद्ध परिणामके, कर्ता होय अजान ॥१६॥ अर्थ-जे दुरमती विकल अज्ञानी है अर जे स्वगुण तथा परगुण जाने नही अर जे मायाचारमें
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