________________
समय
॥ ९० ॥
चिनमुद्रा धारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुण, रतन भंडारि आप हारी कर्म रोगंको ॥ प्यारो पंडितनको हुस्यारो मोक्ष मारगमें, न्यारो पुदगलसों उजारो उपयोगको ॥ जाने निज पर तत्त रहे जगमें विरक्त, गहे न ममत्त मन वच काय जोगको ॥ ता कारण ज्ञानी ज्ञानावरणादि करमको, करता न होइ भोगता न होइ भोगको ||७|| अर्थ - चिनमुद्रा धारी ( ज्ञानी ) है सो आत्म स्वभाव धारे है, ताते गुणरूप रत्नका भंडारि अर कर्मरूप रोगका वैद्य है । जिसको ज्ञानरूप उजारा हुआ है सो देहादिक पुद्गलकं न्यारो जाने है, अर मोक्षमार्ग में सावधान रहे है ताते पंडित जनको प्यारो लागे है । ज्ञानी है सो स्व तत्व परतत्वका भेद समझे है अर संसारसे उदास रहे है, तथा मन वचन अर कायके योगका ममत्व नही राखे है । इत्यादि गुण धारे है तिस कारणर्ते ज्ञानीजीव है सो कर्मबधका कर्त्ता तथा कर्मबंध के फल जे सुख अर दुःख तिस सुख अर दुःखका भोक्ता नहि होय है ॥ ७ ॥
निर्भिलाष करणी करे. भोग अरुचि घट मांहि । ताते साधक सिद्धसम, कर्त्ता भुक्तानांहि ॥८॥ अर्थ - ज्ञानी है सो इच्छा रहित संसार करे है अर चित्तमें भोगकी मोक्षका साधक (ज्ञानी ) है सो सिद्ध समान कर्मबंधका कर्त्ता तथा भोक्ता
रुचि नहि घरे है ।
नही है |
11
"
॥ अब अज्ञानी कर्मका कर्त्ता तथा भोक्ता होय है तिसका कारण कहे है ॥ कवित्त ॥जो हिय अंध विंकल मिथ्यात घर, मृषा सकल विकलप उपजावत ॥ गहि एकांत पक्ष आतमको, करता मानि अधोमुख धावत || त्यों जिनमती द्रव्य चारित्र कर, करनि करि करतार कहावत ॥
सारअ० १०
॥ ९० ॥