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समय
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- ॥ अव प्रमादका अर अप्रमादका स्वरूप कहे है ॥ दोहा ॥ -
ता कारण जगपंथ इत उत शिव मारग जोर। परमादीजगकूं दुके, अपरमाद शिव ओर ॥ ३९ ॥ जे परमादी आळसी, जिन्हके विकलप भूर । होइ सिथल अनुभौविषे, तिन्हको शिवपथ दूर ||४०|| जे परमादी आळसी, ते अभिमानी जीव । जे अविकलपी अनुभवी, ते समरसी सदीव ॥ ४१ ॥ जे अविकलपी अनुभवी, शुद्ध चेतनायुक्त । ते मुनिवर लघुकालमें, होइ करमसे मुक्त ॥ ४२ ॥
अर्थ - प्रमाद है सो संसारका मार्ग है, अर अप्रमाद है सो मोक्षका मार्ग है । ताते जे प्रमादी है ते संसारमार्गकूं चले है अर अप्रमादी है सो मोक्षमार्गकूं चले है ॥ ३९ ॥ जे प्रमादी आळसी है तिनकूं बहूत विकल्प ( भ्रम ) उपजे है । अर ते अनुभवविषे सिथिल होय है ताते तिनकूं मोक्षमार्ग अति दूर है ॥ ४० ॥ अर जे प्रमादी आळसी है ते अहंबुद्धी जीव है । अर जे विकल्प ( प्रमाद ) रहित आत्मानुभवी है ते समरसी जीव है ॥ ४१ ॥ जे विकल्परहित अर आत्मानुभवी है ते शुद्ध चेतना (ज्ञान अर दर्शन ) युक्त है । रमरसी मुनी अल्प कालमें कर्मरहित होय मोक्षकूं जाय है ॥ ४२ ॥
॥ अव अहंबुद्धीका अर ज्ञानीका स्वरूप दृष्टांत से कहे है ॥ कवित्त ॥
जैसे पुरुष लखे पहाढ चढि, भूचर पुरुष तांहि लघु लग्गे ॥ भूचर पुरुष लखे ताको लघु, उत्तर मिले दुहूको भ्रम भग्गे ॥ तैसे अभिमानी उन्नत गल, और जीवको लघुपद दग्गे ॥ अभिमानीको कहे तुच्छ सब, ज्ञान जगे समता रस जग्गे ॥ ४३ ॥ अर्थ -- जैसे कोई पहाड ऊपर चढ़े मनुष्यकं तलाटीका मनुष्य छोटासा दीखे है । अर तलाटीके
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सार
अ० ९
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