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समय
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रूपके रीझेय्या सब नैके समझेय्या सब, हीके लघु भैय्या सबके कुबोल सहें हैं ॥
वामके वमैय्या दुख दाम दमैय्या ऐसे, रामके रमैय्या नर ज्ञानी जीव कहे हैं ॥ ४५ ॥ अर्थ — ज्ञानी है ते—धैर्य घरे है अर भवसागर तरनेका उपाय करे है, निर्भय रहे है अर शूर समान इंद्रिय दमन करे है। काम के बाणकूं जीते है अर सुविचार करे है, समतारूप सुखके ढारमें है अर आत्मगुण लह लहे है । आत्मस्वरूपमें तल्लीन होय है अर सब नयकूं जाने है, सबते छोटे भाई समान रहे अर सबके कुवचन सहे है । स्त्रीकी इच्छा छोडे है अर दुःखकूं सहन करे है, आत्मानुभव रमे है इत्यादि गुण ग्रहण करे है सो ज्ञानी जीव है ॥ ४५ ॥ ॥ अव शुद्ध अनुभवी जीवकी प्रशंसा करे है | चौपाई ॥ - जे समकिती जीव समचेती । तिनकी कथा कहु तुमसेती ॥ जहां प्रमाद क्रिया नहि कोई । निरविकल्प अनुभौ पद सोई ॥ ४६ ॥ परिग्रह त्याग जोग थिर तीनो । करम बंध नहि होय नवीनो ॥
जहां न राग द्वेष रस मोहे । प्रगट मोक्ष मारग मुख सोहे ॥ ४७ ॥
अर्थ- हे भव्य ? जे सम्यक्ती समचित्ती जीव है तिनके गुणकी कथा तुमसे कहूंहूं | जहां कोई प्रकारे प्रमादकी क्रिया नही है सो निर्विकल्प अनुभवका स्वरूप है ॥ ४६ ॥ अर जहां २४ प्रकारके परिग्रहका त्याग है तथा मन वचन अर देहके योग स्थिर है तहां नवीन कर्मका बंध नही होय है अर जहां राग द्वेष तथा मोह रस नही है तहां प्रत्यक्ष मोक्षमार्ग है ॥ ४७ ॥ पूरव बंध उदय नहि व्यापे । जहां न भेद पुन्न अरु पापे ॥
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सार
अ० ९
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