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मनुष्यकू पहाड ऊपरका मनुष्य छोटासा दीखे है। पण पहाड ऊपरका मनुष्य नीचे उतरि तलाटीवालकू मिले जब दोकू छोटेपणाका भ्रम उपजा है सो दूर होय है । तैसे अभिमानी मनुष्य अहंकारते अन्य सब जीवकू तुच्छ माने है। अर जगतके सब लोक अभिमानीकू तुच्छ माने है ऐसे परस्परके विचारमें विषमता रहे है पण जब ज्ञान जगे है तब विषमता मिटे है अर समता उपजे है ॥ ४३ ॥
॥ अव अहंवुद्धी ( अभिमानी )का विचार कहे है ॥ सवैया ३१ सा - करमके भारी समुझे न गुणको मरम, परम अनीति अधरम रीति गहे है ॥ होइ न नरम चित्त गरम घरम हूते, चरमकि दृष्टिसों भरम भुलि रहे है ॥ आसन न खोले मुख वचन न बोले सिर, नायेहू न डोले मानो पाथरके चहे है ।
देखनके हाउ भव पंथके बढाउ ऐसे, मायाके खटाउ अभिमानी जीव कहे है ।। ४४॥ 5 अर्थ-अभीमानी है ते बहुत कर्म करे है-गुणका अर दुर्गुणका मर्म समजे नही, तथा महा ६ अनीति अर अधर्मकी रीत ग्रहण करे । निर्दयपणामें अर क्रोधकषायमें अग्नीते गरम रहे, चरम दृष्टीते || । अहंकाररूप भ्रममें भूले है। हठ छोडे नहीं तथा गर्वते बोले नही, किसीने जुहार किया तो तिसळू सिर नमावे नहीं मान जैसे पथ्थरके. चित्र है । दुसरेकू डरावनेर्ले बाऊ है अर दुराचरण बढावनेकू तयार रहे, ऐसे कपट जालके गुंफनारे जे है ते अभिमानी जीव है ॥ ४ ॥
॥ अव समरसी (ज्ञानी ) जीवका विचार कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥धीरके धरैय्या भव नीरके तरैय्या भय, भीरके हरैय्या वर वीर ज्यों उमहे हैं ॥ मारके मरैय्या सुविचारके करैय्या सुख, ढारके ढरैय्या गुण लोसों लह लहे हैं।