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कुलकी रीत नही अर हारी तथा जीत नही, जिसमें गुरु तथा शिष्य नही अर हलन तथा चलन नही । जिसमें कोई आश्रम तथा जाति वर्ण नही अर काहू ईश्वरादिकका शरण नही, ऐसे आत्माके शुद्ध सत्ताके समाधिरूप भूमीका स्वरूप वर्णन कीया ॥ २३ ॥
॥ अव आत्मसत्ताकूं न जाने सो अपराधी है तिसका स्वरूप कहे है ॥ दोहा ॥
जाके घट समता नही, ममता मगन सदीव । रमता राम न जानही, सो अपराधी जीव ॥ अपराधी मिथ्यामती, निरदे हिरदे अंध । परको माने आतमा, करे करमको बंध ॥ २५ ॥ झूठी करणी आचरे, झूठे सुखकी आस । झूठी भगती हिय धरे, झूठो प्रभूको दास ॥ २६ ॥
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अर्थ - जिसके हृदय में समता नही अर जो सदैव देहादिक पर वस्तुमें मग्न हो रहा है । अर जो अपने देहमें रमनेवाला आत्मारामकूं नहि जाने सो अपराधी जीव है ॥ २४ ॥ जो आत्मस्वरूपकं जाने नही सो अपराधी मिथ्यात्वी है तिसका हृदय निर्दय अर अंध ( ज्ञान रहित ) है । ताते देहादिक परवस्तुकं आत्मा मानि निरंतर कर्मबंध करे है ॥ २५ ॥ ज्ञान विना क्रिया झूठी है, अर आत्मस्वरूप जाने विना मोक्षसुखकी आश झूठी है। श्रद्धा विना भक्ति झूठि है, अर प्रभूका ( ईश्वरका ) स्वरूप जाने बिना सेवा करना सो झूठा दास है ॥ २६ ॥
॥ अव अपराधीका विचार कहे है । सवैया ३१ सा ॥
माटी भूमि सैलकी सो संपदा - वंखाने नि, कर्म में अमृत जाने ज्ञानमें जहर है || अपना न रूप गहे ओरहीसों आपा कहे, सातातो समाधि जाके असाता कहर है ॥