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समय
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॥ अव आत्मानुभव करनेके विधिका क्रम कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ - - प्रथम सुदृष्टिसों शरीररूप कीजे भिन्न, तामें और सूक्ष्म शरीर भिन्न मानीये ॥ अष्ट कर्म भावकी उपाधि सोई कीजे भिन्न, ताहूमें सुबुद्धिको विलास भिन्न जानिये ॥ तामें प्रमु चेतन विराजत अखंडरूप, वहे श्रुत ज्ञानके प्रमाण ठीक आनिये ॥ वाहिको विचार करि वाहिमें मगन हूजे, वाको पद साधिवेकों ऐसी विधि ठानिये ॥५४॥
अर्थ — प्रथम भेदज्ञानते शरीरकूं भिन्न मानना, फेर शरीरमें जो सूक्ष्म तैजस शरीर है अर सूक्ष्म कार्माण शरीर है तिसकूं भिन्न मानना । फेर अष्ट कर्मके उपाधि ( राग अर द्वेष ) कूं भिन्न मानना, फेर कर्मते सुबुद्धीके विलास ( भेद ज्ञान ) कूं भिन्न मानना । तिस ज्ञानके विलासमें आत्मा अखंड वसे है, ऐसे श्रुत ज्ञानके प्रमाण अर नय निक्षेपते हृदयमें स्थापन करना । अरे मन ? तूं इस माफिक आत्माका विचार कर अर इस आत्मामेही मग्न हो, परमात्मपद ( मोक्षपद ) साधवेकूं येही आत्मानुभवकी विधि युक्त है सो निरंतर करना ॥ ५४ ॥
॥ अव आत्मानुभवते कर्मका वंधनहि होय हे सो कहे है | चौपई ॥ सवैया ३१ सा ॥ -
इहि विधि वस्तु व्यवस्था जाने । रागादिक निजरूप न माने ॥ तातें ज्ञानवंत जग मांही । करम बंधको करता नांही ॥
५५ ॥
अर्थ – ऐसे आत्मखरूप जाने है अर रागद्वेषादिककूं पर माने है । तातैं भेदज्ञानी है सो जगतमें कर्मबंधकूं कर्ता नही है ॥ ५५ ॥
सार
अ० ८
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